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देश का दर्द क्यों नहीं बनती बुंदेलखंड की पीड़ा!
सुरेंद्र किशोर राजनीतिक विश्लेषक बुंदेलखंड तो सूखा दर्शन का एक नमूना मात्र है. देश के कई राज्यों में सूखे और अकाल की स्थिति है़ पर बुंदेलखंड और मराठवाड़ा में तो दारुण स्थिति है. हाल में बुंदेलखंड का एक अकाल पीड़ित व्यक्ति एक दृश्य मीडिया के संवाददाता को बता रहा था, ‘बहुत दिनों के बाद गेहूं […]
सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक विश्लेषक
बुंदेलखंड तो सूखा दर्शन का एक नमूना मात्र है. देश के कई राज्यों में सूखे और अकाल की स्थिति है़ पर बुंदेलखंड और मराठवाड़ा में तो दारुण स्थिति है. हाल में बुंदेलखंड का एक अकाल पीड़ित व्यक्ति एक दृश्य मीडिया के संवाददाता को बता रहा था, ‘बहुत दिनों के बाद गेहूं की रोटी खा रहा हूं.’
दूसरा गरीब कहता है कि इस शाम का खाना मिल भी जाये, तो अगली रोटी कब नसीब होगी, यह मैं कह नहीं सकता. गत साल बुंदेलखंड के 415 किसानों ने आत्महत्या की. भुखमरी की संख्या उपलब्ध नहीं है, क्योंकि कोई भी सरकार भुखमरी की बात कबूलती ही नहीं. गत साल ‘स्वराज अभियान’ नामक संगठन ने बुंदेलखड के यूपीवाले हिस्से के सात जिलों के 108 गांवों का सर्वे किया था़ विवरण दिल को छूनेवाले हैं.
क्या ऐसे सर्वेक्षणों का सरकार कोई नोटिस लेती भी है? : 1966-67 में बिहार में भीषण सूखा और अकाल पड़ा था. जय प्रकाश नारायण ने रिलीफ अभियान चलाया था़ उस दर्दनाक स्थिति को रिपोर्ट करने के लिए अज्ञेय और फणीश्वरनाथ रेणु ने पीड़ित इलाकों का सघन दौरा किया था. अकाल पीड़ितों की दारूण स्थिति को चित्रित करते हुए जो फोटोग्राफ्स लिये गये थे, उनकी प्रदर्शनी दिल्ली में लगी थी़ देश-दुनिया के संवेदनशील लोग हिल गये थे.
पर, अपवादों को छोड़ दें तो हमारे हुक्मरान नहीं हिले. उन्होंने 1966-67 के बिहार के सूखा-अकाल से कोई शिक्षा नहीं ली. अन्यथा कृषि प्रधान देश की दो तिहाई कृषि योग्य भूमि अब भी इंद्र भगवान के भरोसे नहीं रहती. आज मीडिया जरूर बुंदेलखंड और मराठवाड़ा की पीड़ा कुछ हद तक लोगों तक पहुंचा रहा है, पर कोई बड़ी राजनीतिक या सामाजिक हस्ती की ओर से कोई कारगर हस्तक्षेप की खबर नहीं है. आज के अनेक साधु-संतों के पास भी बहुत पैसे हैं.
उनमें से कोई धनवान संत क्यों एक छोटे क्षेत्र में भी इस समस्या के स्थायी समाधान का उपाय करता ? जब मैं छोटा था और गांव में रहता था तो एक साधु श्रमदान से बांध बनवाता था. लोग उसका बड़ा आदर करते थे. कुछ साल पहले राहुल गांधी की पहल पर मनमोहन सरकार ने बुंदेलखंड को सूखे से राहत दिलाने के लिए करीब 700 करोड़ रुपये का पैकेज दिया था.हाल में एक इलेेक्ट्राॅनिक चैनल ने वहां जाकर यह रिपोर्ट की कि किस तरह वे पैसे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गये.
महाराष्ट्र का अरबों रुपये का सिंचाई घोटाला चर्चित है. यदि इस देश के कम-से-कम 100 सांसदों और विधायकों का जत्था इन सूखाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा करता तो उनमें से कम-से-कम दस प्रतिशत जन प्रतिनिधियों को तो इस बात का एहसास हो ही जाता कि जनता ने उन्हें किसलिए चुना था और वे क्या कर रहे हैं.उनमें से एक दो संवदेनशील लोग तो शर्म से संभवत: आत्महत्या कर लेते या फिर राजनीति से संन्यास ले लेते. पर यह तो कल्पना की बातें हैं. बाकी तो भगवान खासकर इंद्र भगवान के हाथ में है. यदि कहीं वह है तो. पानी बरसाना और इस देश के हुक्मरानों को सुबुद्घि देना शायद ईश्वर के हाथ में ही है. बुंदेलखंड की चर्चा इसलिए क्योंकि यदि हुक्मरान अब भी नहीं चेते तो धीरे -घीरे यही स्थिति अन्य राज्यों की भी हो जायेगी.
सजा के बाद भी सजा : बिहार सरकार के गृह विभाग की वेबसाइट पर ऐसे करीब 21 हजार अपराधियों के नाम अंकित हो चुके हैं जो सजा काट रहे हैं या काट चुके हैं. इन्हें न तो सरकार ठेके का कोई काम देगी और न ही जन वितरण प्रणाली की दुकान. न तो आर्म्स लाइसेंस मिलेगा और न ही बैंक से कर्ज. संबंधित अफसरों के पास वेबसाइट पर नाम उपलब्ध होंगे.कुछ साल पहले राज्य सरकार ने ऐसे आंकड़ों को वेबसाइट पर डालना शुरू किया था.
इसका उद्देश्य यह है कि अपराधी जेल की सजा भुगत लेने के बाद भी यह महसूस करें कि अपराध करने की सजा सिर्फ जेल ही नहीं बल्कि और भी है. संभवत: इससे कुछ नये अपराधियों को चेतावनी मिलेगी. पर इसका क्या उपाय है कि अपराधी अपने सगे-संबंधियों के नाम पर सरकारी सुविधाओं के लाभ लेते रहेंगे ?
वंशवादी महत्वाकांक्षाओं का टकराव : हाल में दिल्ली में अर्जुन सिंह स्मारक व्याख्यान आयोजित हुआ.राष्ट्रपति और कांग्रेस अध्यक्ष की उपस्थिति के बावजूद पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह के पुत्र उसमें शामिल नहीं हुए. ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि व्याख्यान का आयोजन सद्भावना फाउंडेशन की ओर से किया गया था. अर्जुन सिंह की पुत्री वीणा सिंह उस फाउंडेशन की संचालिका हैं. उनकी अपने भाइयों से नहीं पटती. यह वंशवादी राजनीति की अनिवार्य बुराई है. जिस वंशवादी नेता का जितना बड़ा परिवार, उतना ही अधिक आंतरिक कलह. राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं जो न कराए !
कहीं देखा है ऐसा देश ?: तमिलनाडु सरकार के एक विवादास्पद प्रस्ताव को केंद्र सरकार ने ठुकरा दिया. प्रस्ताव यह था कि राजीव गांधी के उन सात सजायाफ्ता हत्यारों को रिहा कर दिया जाये.
ऐसा प्रस्ताव ऐसे लोगों के वोट हासिल करने के लिए दिया गया था जो लोग राजीव गांधी के हत्यारों के प्रति सहानुभूति रखते हैं. यह कैसा देश है जहां की राजनीतिक पार्टी अपने प्रधान मंत्री के हत्यारों के प्रति सहानुभूति रखती है ? इस देश के कई दलों के बड़े नेतागण सिमी और इंडियन मुजाहिदीन के पक्ष में लगातार बयान देते रहे.
हालांकि जानकार लोगों को मालूम है कि सिमी से इंडियन मुजाहिदीन बने इस संगठन का असली उद्देश्य क्या है. संसद भवन में घुसकर सारे सांसदों का संहार करने की योजना बनाने वाले अफजल गुरू के प्रति विश्वविद्यालयों में खुलेआम नारे लगते हैं और कई बड़े नेता नारेबाजी आयोजित करनेवालों के पक्ष में खड़े होते हैं. इसी साल मालदा में भीड़ ने पुलिस थाने को जला दिया और पुलिसवालों को पीटा. पुलिस थाने छोड़कर भाग जाने को मजबूर हो गयी.कसूर न तो उन पुलिस वालों का था और न ही थाने के कागजात का. कसूर किसी ने उत्तर प्रदेश में किया था जिस पर एक वर्ग के लोग भारी हिंसा कर बैठे. भावना में बहकर हिंसा करने की बात समझ में आती है,पर मालदा के उपद्रवियों के प्रति वहां के सत्ताधारी दल की सहानुभूति समझ से परे है. किस अन्य देश में ऐसा होता है ?
एक दल की सरकार आती है तो वह प्रज्ञा सिंह और कर्नल पुरोहित संगीन आरोपों के तहत जेल जाते हैं. पर दूसरे दल की सरकार आने के बाद उन्हें निर्दोष बताया जाता है.
इस देश में यह सब क्या हो रहा है ? इस तरह के कई उदाहरण इस देश में आये दिन देखने को मिल रहे हैं.कहीं किसी ने देखा है ऐसा दूसरा कोई देश ?
प्रधानमंत्री पद के लिए कुरसी की जगह बेंच ! : तृणमूल कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता डेरेक ओ ब्रायन ने कहा है कि मुख्यमंत्री पद की दूसरी बार शपथ लेने के बाद ममता बनर्जी के लिए दिल्ली विमान से मात्र दो घंटे की दूरी पर होगी. प्रवक्ता से ममता बनर्जी के 2019 में प्रधान मंत्री बनने की संभावना के बारे में पूछा गया था. उधर अखिलेश यादव अपने 77 वर्षीय पिता मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनवाना चाहते हैं. इस पर एक व्यक्ति की टिप्पणी थी कि अब प्रधानमंत्री की कुरसी को हटा कर वहां बेंच लगा देना चाहिए.
और अंत में : एक वामपंथी बुद्धिजीवी ने यह जानकारी दी कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से निकले 55 छात्र इन दिनों देश में सचिव स्तर के ऑफिसर हैं. पर, उन्होंने यह नहीं बताया कि जब ये ऑफिसर वहां छात्र थे तो जेएनयू के परिसर में तब यह नारा नहीं लगता था कि ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्ला इंशा अल्ला ?’
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