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चंपारण में गांवों की बुनियाद बदलते महात्मा गांधी के स्कूल
ताने सुन कर जागा विरासत को सहेजने का चाव पुष्यमित्र मोतिहारी : pushyamitra@prabhatkhabar.in पूर्वी चंपारण जिले के ढाका प्रखंड से महज छह किमी दूर है बड़हरवा लखनसेन गांव. आज की तारीख में अगर आपको उस गांव तक बिना धूल-धक्कड़ खाये और बिना उछले-कूदे पहुंचना है, तो उस रास्ते को अपनाना होगा, जो 11 किमी लंबा […]
ताने सुन कर जागा विरासत को सहेजने का चाव
पुष्यमित्र
मोतिहारी : pushyamitra@prabhatkhabar.in पूर्वी चंपारण जिले के ढाका प्रखंड से महज छह किमी दूर है बड़हरवा लखनसेन गांव. आज की तारीख में अगर आपको उस गांव तक बिना धूल-धक्कड़ खाये और बिना उछले-कूदे पहुंचना है, तो उस रास्ते को अपनाना होगा, जो 11 किमी लंबा है.
ठीक ही है, गांधी के गांव तक पहुंचने का रास्ता सरल और सहज होना भी नहीं चाहिए. गांव की सीमा पर बना राजकीय बुनियादी विद्यालय इस गांव का गौरव है. बच्चा-बच्चा जानता है कि इस स्कूल को गांधी जी ने स्थापित किया था. घुसते ही गांधी की विशाल मूर्ति नजर आती है और कुछ शिलालेख भी, जिसमें इस स्कूल के महत्व के बारे में और स्कूल के लिए भवन दान करनेवाले के बारे में जानकारी दी गयी है. हालांकि, शाम के वक्त जब यह संवाददाता उस स्कूल के प्रांगण में पहुंचता है, तो देखता है कि कुछ बच्चे घास पर बैठ कर ताश खेल रहे हैं.
कुछ साल पहले जब पूर्वी चंपारण के डीएम शिव कुमार यहां आये थे, तो गांव में फैली गंदगी को देख कर बिफर पड़े और उन्होंने गांव के लोगों को खूब खरी-खोटी सुनायी. डीएम महोदय की बात गांव के लोगों के दिल पर लगी. आनन-फानन में बैठक बुलायी गयी और एक कमेटी का गठन किया गया.
कमेटी का काम गांव में साफ-सफाई करना तो था ही, यह पता लगाना भी था कि आखिर गांव के इस स्कूल का ऐसा क्या महत्व है कि डीएम साहब उस पर इतना ध्यान दे रहे हैं. यानी 80-90 साल के दौरान जो चार-छह पीढ़ियां गुजरीं, वे पुरानी बातों को पूरी तरह भूल गयीं.
कमेटी के अध्यक्ष बनाये गये कमाल हसन. कमाल हसन ने इस बैठक के बाद गांव में चल रहे इस स्कूल का इतिहास पता लगाना शुरू किया, तो उन्हें पता चला कि चंपारण सत्याग्रह में सफलता के बाद गांधी जी ने तय किया कि वे यहां रह कर कुछ दिन समाज सुधार का अभियान चलायेंगे.
वे यहां अशिक्षा और गंदगी देख कर काफी परेशान थे. उन्होंने तत्कालीन अंग्रेज अधिकारियों को पत्र लिख कर सूचित किया कि वे इस इलाके में कुछ स्कूल खोलना चाहते हैं. अधिकारियों ने इस मुद्दे पर जब नील खेती कराने वाले अंगरेजों से सलाह ली, जिनका प्रशासन पर अच्छा खासा प्रभाव था, तो उनलोगों ने पहले तो साफ-साफ मना कर दिया. फिर समझाने-बुझाने पर कहा कि स्कूल उन इलाकों में खोले जा सकते हैं, जो नीलहे ब्रिटिशर्स की जमींदारी में नहीं आते.
इस फैसले के बाद गांधी जी ने अपने साथियों की बैठक में इस प्रस्ताव को रखा. गांधी जी ने कहा कि वे स्कूल तभी खोलेंगे, जब उसकी स्थापना गांववालों के संसाधन से हो. उनके लोग कुछ दिनों तक स्कूल का संचालन करेंगे, फिर गांव के लोगों को इस अभियान को अपने हाथ में लेना पड़ेगा. कमाल हसन बताते हैं, उस मीटिंग में गांव के एक व्यक्ति रामगुलाम लाल बख्शी भी मौजूद थे.
उन्होंने कहा कि उनके गांव में उनका एक खपरैल मकान है. गांधी जी चाहें, तो वहां अपना स्कूल खोल सकते हैं. उनकी बात गांधी जी को जंच गयी और 12 नवंबर, 1917 को गांधी जी को हाथी पर चढ़ा कर इस गांव लाया गया. 13 को उनका स्कूल शुरू हुआ और पांच छात्रों के साथ कक्षा शुरू की गयी.
स्कूल परिसर में एक शिलापट्ट पर लिखा है कि बंबई के इंजीनियर बबन गोखले, उनकी पत्नी अर्वेनिका बाई गोखले, गांधी के कनिष्ठ पुत्र देवदास गांधी और साबरमती आश्रम के छोटे लाल और सुरेंद्र जी ने लंबे समय तक इस स्कूल में शिक्षक के तौर पर अपनी सेवाएं दी हैं.
वैसे बापू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि छह माह बाद खेड़ा सत्याग्रह शुरू होने के बाद उन्हें अपनी टीम के साथ लौटना पड़ा. इन स्कूलों को चलाने के लिए उन्हें बेहतर स्थानीय स्वयंसेवक नहीं मिले. मगर गांधी जी द्वारा खोले गये एक अन्य स्कूल भितिहरवा में एक मराठी स्वयंसेवक के 1972 तक वहां आते-जाते रहने की सूचना है.
बड़हड़वा का यह स्कूल कब-कब किन-किन लोगों ने चलाया, यह तो मालूम नहीं. मगर यह जरूर कहा जाता है कि पहले डिस्ट्रिक्ट बोर्ड ने चलाया, फिर बिहार सरकार ने इसका सरकारीकरण कर दिया. आज भी स्कूल के परिसर में शिवगुलाम लाल बख्शी का वह खपरैल मकान है, जिसमें यह स्कूल शुरू हुआ था. इसे अब तक निशानी के तौर बचा रखा गया है.
कमाल हसन कहते हैं, इस स्कूल का इतिहास पता करना इतना सहज काम नहीं था. उस दौर के ज्यादातर लोग मर-मरा गये थे. जो बचे थे, उन्हें ढूंढ़-ढूंढ़ कर उनसे कहानियां सुनीं, कुछ लोगों ने इधर-उधर की जानकारियां देकर बहकाने की भी कोशिश की. कुछ लोगों ने खुद को ही नायक बता दिया. मगर जिस तरह हंस पानी मिले दूध में से सिर्फ दूध निकाल लेता है, हमने भी वही रास्ता अपनाया. जब गांव के लोगों को इस स्कूल का पूरा इतिहास पता चल गया, तो फिर हमलोगों ने टोकड़ी और कुदाल उठाया और पूरे गांव को साफ करने में जुट गये. समिति का नाम रखा गया, गांधी स्मारक सह ग्राम विकास समिति. यह सब संभवतः 2002-3 की बात.
फिर 30 जनवरी को समिति ने गांधी की याद में कार्यक्रम का आयोजन कराना शुरू किया. इसमें देश के बड़े-बड़े लोगों को आमंत्रित किया जाने लगा. एक बार तो तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम भी आने को राजी हो गये थे. मगर वे किसी वजह से आ नहीं पाये. हालांकि, उन्होंने इस गांव के लिए 52 सोलर लैंप भिजवा दिये.
इन लैंपों की भी अजब कथा है. जब ये डीएम महोदय के पास पहुंचे, तो उन्होंने कमाल हसन को बुलवा कर कहा, आप इतने लैंपों का क्या करेंगे. चाहें, तो 26 लैंप मुशहरों की बस्ती के लिए दे दें, 26 अपने गांव के लिए ले जाएं. तब तक गांधी का साहित्य और उनकी कहानियां पढ़ कर कमाल हसन इतने बदल चुके थे कि उन्हें डीएम का प्रस्ताव स्वीकार करने में एक मिनट नहीं लगा.
इन दिनों कमाल हसन अपने गांव के इस स्कूल के शताब्दी वर्ष के मौके पर आयोजित होने वाले समारोह की तैयारियों में जुटे हैं. वे लगातार सादे कागज पर हाथ से पत्र लिख कर लोगों को आमंत्रित कर रहे हैं. वे चाहते हैं कि इस खास आयोजन में राज्यपाल महोदय खुद इस गांव आएं. वे अपने पत्रों का गट्ठर खोल कर बैठ जाते हैं. (जारी)
कहानी गांधी द्वारा खोले गये पहले स्कूल बड़हरवा लखनसेन की
चंपारण में महात्मा गांधी ने सिर्फ किसानों के हक की लड़ाई ही नहीं लड़ी थी, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य व साफ-सफाई का अभियान भी चलाया था. इसके लिए बाहर से 21 स्वयंसेवकों की टीम बुलायी थी, जिसमें कस्तूरबा समेत छह महिलाएं भी थीं. गांधी जी ने चंपारण में तीन स्कूलों की स्थापना की. ये थे बड़हरवा लखनसेन, भितिहरवा और मधुबन के स्कूल. मधुबन का स्कूल ज्यादा दिनों तक चल न सका, पर दो स्कूल आज भी संचालित हो रहे हैं. चंपारण सत्याग्रह के शताब्दी वर्ष शुरू होने से ठीक पहले पढ़ें दो स्कूलों की कथा की पहली किस्त.
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