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बेखुदी बेसबब नहीं गालिब, कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है

गुजारिश : राजनीतिक दल रोहित और जेएनयू व जादवपुर विवि के घटनाक्रम को 1968 के फ्रांस के छात्र आंदोलन के प्रिज्म से देखने की कोशिश करें प्रो मनोज कु झा दिल्ली विश्वविद्यालय इस आलेख का ताना बाना बीते कई महीनों से बन रहा था. जब रोहित वेमुला हमारी सभ्यता की खुदकुशी का खत हमारे नाम […]

गुजारिश : राजनीतिक दल रोहित और जेएनयू व जादवपुर विवि के घटनाक्रम को 1968 के फ्रांस के छात्र आंदोलन के प्रिज्म से देखने की कोशिश करें
प्रो मनोज कु झा
दिल्ली विश्वविद्यालय
इस आलेख का ताना बाना बीते कई महीनों से बन रहा था. जब रोहित वेमुला हमारी सभ्यता की खुदकुशी का खत हमारे नाम छोड़ गया, तो किसी सरकार और राजनीतिक दल से ज्यादा अपने और अपने जैसों के लिए आक्रोश का भाव आया. क्या यह दुखद विडंबना नहीं है कि एक जिंदा संविधान के छियासठ वर्ष के वजूद के बाद भी एक बड़ी आबादी अपने आप को महफूज क्यों नहीं पाती है?
फिर ‘जेएनयू में देशद्रोह’ आ गया, और ढेर सारी गिरफ्तारियां हो गयीं, हम सड़कों पर आ गये या यूं कहें कि फरवरी के महीने में मार्च (जुलूस) की जरूरत आन पड़ी. प्राइम टाइम डिबेट के असंख्य एंकर न सिर्फ अचानक से स्वनामधन्य देशभक्त हो गये, बल्कि उन्होंने देशभक्ति के प्रमाणपत्र वितरण की फ्रेंचाइजी खोल ली. खैर यह जानते हुए भी कि बात निकलेगी, तो दूर तलक जायेगी, मैंने कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों और सरोकारों को लोक विमर्श में अब रखने का निर्णय किया है.
रोहित वेमुला से लेकर जेएनयू तक के घटनाक्रम ने लोकजीवन में कुछ ऐसे पहलू रख छोड़े हैं, जो देशभक्ति और देशद्रोह के दायरे में बंधने को तैयार नहीं है. रोहित की खुदकुशी के बाद छोड़े गये तथ्यों में पहला तथ्य था कि ‘मेरा जीवन एक घातक दुर्घटना है’..जिसकी त्रासदी की लकीर उसके जन्म से लेकर हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय तक उसको परिभाषित करती रही थी. यहां रोहित प्रतीक हो जाता है जातिगत वैमनष्य और उत्पीड़न के सनातनी व्याकरण का.
अांबेडकर द्वारा रचित ‘अनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ के पश्चात, रोहित की खुदकुशी की चिट्ठी जातिगत संरचना, संसाधनों के वितरण और समतामूलक समाज के पक्ष में सबसे जिंदा दस्तावेज है. रोहित वेमुला द्वारा चिह्नित इस व्यापक दायरे से ही अन्य प्रश्नों की लंबी शृंखला आती है, जिसके पक्ष में उसके प्रतीक के माध्यम से जेएनयू के छात्र खड़े हो जाते हैं. इन प्रश्नों में विश्वविद्यालयों की स्वायतत्ता, उच्चशिक्षा के वैश्विक दर्शन, अभिव्यक्ति की आजादी और चुनने और होने की स्वाधीनता जैसे महत्वपूर्ण सरोकार शामिल हैं.
यह अकारण नहीं है कि कई टिप्पणीकारों को 1968 में फ्रांस और यूरोप के अन्य मुल्कों में हुए छात्र आंदोलन की बरबस याद आ रही है. तब भी लोगों ने ‘नन्तेरे’ नामक एक छोटे विश्वविद्यालय से शुरू हुई चिंगारी को ‘क्षणिक रूमानी बदलाव’ की चाहत कहके खारजि करने की कोशिश की थी लेकिन युवाओं के बदले मिजाज ने सिर्फ एक महीने में फ्रांस के राष्ट्रपति द गाल की अधिनायकवादी सत्ता की चूलें हिला कर रख दी थी.
किसी भी आंदोलन को सिर्फ सफलता और असफलता की पृष्ठभूमि में आंकने वाले विश्लेषक और आलोचक भी यह मानते हैं कि आभासी तौर पर असफल होने के बावजूद 1968 के छात्र-युवा के जज्बे ने न सिर्फ संवेदनहीन पूंजीवाद बल्कि विकास के मायने, नौकरशाही से लेकर संगीत, सिनेमा और अंतरवैयक्तिक, अंतरलैंगिक संबंधों के विमर्श को सिरे से बदल कर रख दिया. मेरी गुजारिश है कि सत्ताशीर्ष पर बैठे दलों के अलावा अन्य राजनीतिक दल भी रोहित वेमुला से लेकर जेएनयू और जादवपुर विश्वविद्यालय के हालिया घटनाक्रम को 1968 के प्रिज्म से देखने की कोशिश करें.
इंकलाब-जिंदाबाद और वंदे मातरम के नाद से आगे जाकर देखें तो यह स्पष्ट है कि ये आगाज़ है हिंदुस्तान की अपनी ‘हठी और अवज्ञाकारी पीढ़ी’ के संगठित होने का जहां न सिर्फ नीली और लाल कटोरी बल्कि कई अन्य रंगों की कटोरियां एक साथ एक ही थाली में आने को मचल रही हैं.
इतिहास गवाह है सरकारी हठधर्मिता 1968 के यूरोपीय छात्र युवा आंदोलन में कारगर नहीं हुई और ना ही सत्तर के दशक के जेपी आंदोलन में.
बकौल हबीब जालिब, जो कि पाकिस्तान के सामंती-मिलिट्री हुक्मरानों से लड़ते रहे :
ये धरती है असल में प्यारे, मजदूरों-दहकानों कीइस धरती पर चल न सकेगी मरजी चंद घरानों की.

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