दशरथ मांझी को हमेशा दूसरों की चिंता रहीदशरथ मांझी अब धीरे-धीरे मशहूर होने लगे थे. उन दिनों इलेक्ट्रॉनिक मीडिया शैशवस्था में था. न्यूज चैनल इतने लोकप्रिय नहीं हुए थे. अखबार तो पढ़े ही जा रहे थे, पत्रिकाएं भी खूब पढ़ी जा रही थीं. अखबार तो खैर अभी भी पढ़े जा रहे हैं, पत्रिकाओं के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है.दशरथ मांझी को अखबारों और पत्रिकाओं के माध्यम से खूब प्रसिद्धि मिलने लगी थी. अखबारों और पत्रिकाओं की कतरनों को वे बड़े जतन से एक प्लास्टिक की शीट में जमा कर रखते थे. वे अखबारों, पत्रिकाओं के दफ्तरों के चक्कर लगाने लगे. वे चाहते थे कि किसी तरह बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद से उनकी भेंट हो जाये. वे उन्हें उस रास्ते के बारे मे बताना चाहते थे और चाहते थे कि सरकार उस पर पक्की सड़क बना दे ताकि लोगों को आने-जाने में आसानी हो. एक पत्रकार ने उनकी मुलाकात लालू प्रसाद से करवा दी. लौटे तो बहुत खुश थे. लालू जी ने सड़क बनाने का आश्वासन दिया था और सात एकड़ जमीन भी दी थी. बाद में पता चला कि वह जमीन बंजर थी. दशरथ ने एक भेंट में कहा था, ‘हमने तो लालू जी से अपने लिए तो कुछ नहीं कहा था. हमने सड़क के लिए कहा था. जमीन उन्होंने खुद दी, लेकिन जमीन भी दी तो बंजर.’ बाद में उस जमीन पर उन्होंने अस्पताल बनवाने का प्रयास किया. उन्हीं दिनों से कोलकाता से राजकमल सारथी नाम के एक फिल्म निर्माता दशरथ मांझी को खोजते हुए उनके गांव पहुंचे. वे उन पर फिल्म बनाना चाहते थे. दशरथ उन्हें लिए हुए पटना चले आये. वे करीब दो वर्षों तक इस प्रयास में जुटे रहे. वे पटना के जिस होटल में ठहरते, दिन भर कलाकारों का जमघट लगा रहता. वहां स्वर्गीया नूर फातिमा और स्वर्गीया रत्ना भट्टाचार्य भी होती थीं. रत्ना ने बाद में पटना दूरदर्शन द्वारा दशरथ मांझी पर बनाये गये डाक्यूमेंट्री में उनकी पत्नी फागुनी का अभिनय भी किया था. करीब दो वर्षों के बाद उस फिल्म निर्माता का आना बंद हो गया. उस दिन की भेंट आखिरी भेंट होगी, यह मुझे पता नहीं था. बुद्धमार्ग पर एक चाय की दुकान पर वह दिखे. वे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से जनता दरबार में मिल कर आ रहे थे. वे बहुत प्रसन्न दिख रहे थे. मुख्यमंत्री ने उन्हें अपनी कुर्सी पर बिठा कर सम्मानित किया था. बताने लगे – मुख्यमंत्री जी ने रास्ते पर सड़क बनाने की अनुमति दे दी है. अस्पताल भी बनेगा. जल्दी ही शिलान्यास के लिए चलेंगे. उनकी छोटी छोटी आंखें खुशी से चमक रही थी.इसके कुछ ही दिनों के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पत्नी का देहांत हो गया. दशरथ उनके गांव कल्याणबिगहा पैदल ही ले गये (एक बार वह दिल्ली भी पैदल चले गये थे. कहा था, ‘लोग कहते हैं कि दिल्ली दूर है. हमने भी सोचा, चलो देखते हैं, दिल्ली कितनी दूर है. सो हम पैदल ही दिल्ली चले गये.’) लौट कर आये तो कुछ दिनों के बाद बीमार हो गये. पता चला उन्हें कैंसर है. कुछ दिनों के बाद उनका निधन हो गया. बाद के दिनों में दशरथ मांझी कबीरपंथी हो गये थे. वे चाहते थे कि लोग उन्हें दशरथ दास कहें. उन्होंने एक टोपी भी बनवाई थी, जिस पर उनका नाम दशरथ दास लिखा था, लेकिन अज्ञात कारणों से लोग उन्हें मांझी ही कहते रहे. दशरथ मांझी अद्भुत जीवट वाले व्यक्ति थे. मैंने कभी उन्हें खाली नहीं देखा. वे एक ऐसी मोमबत्ती थे, जो दोनों सिरों से जल कर रौशनी बिखेर रहे थे. उन्हें पेड़, पौधे लगाने का भी बहुत शौक था. उनके लगाये न जाने कितने पौधे अब पेड़ बन गये होंगे. कभी उन्हें अपने इलाके में चापाकल लगवाने की चिंता होती, तो कभी अस्पताल बनवाने की. कभी पुल बनवाने की बात करते, तो कभी बिजली पहुंचाने की. अपने परिजनों की चिंता में घुलते मैंने उन्हें कभी नहीं देखा. यद्यपि उनका एक मात्र बेटा अपंग है और बेटी विधवा.दशरथ जी नहीं रहे. उनके सपने अब भी हैं. मरते वक्त भी उन्हें अपने सपनों की ही चिंता रही होगी. दशरथ जी से जब मैं पहली बार मिला था तो एक जिज्ञासा हुई थी – क्या दशरथ इतिहास में दर्ज हो सकेंगे. इसका उत्तर मुझे मिल गया. दशरथ जनश्रुतियों का हिस्सा बन गये हैं. बरसों बाद जब भी कोई दशरथ मांझी की चर्चा करेगा तो मैं भी कह सकूंगा हां, मैं उस महामानव से मिल चुका हूं. (समाप्त)
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दशरथ मांझी को हमेशा दूसरों की चिंता रही
दशरथ मांझी को हमेशा दूसरों की चिंता रहीदशरथ मांझी अब धीरे-धीरे मशहूर होने लगे थे. उन दिनों इलेक्ट्रॉनिक मीडिया शैशवस्था में था. न्यूज चैनल इतने लोकप्रिय नहीं हुए थे. अखबार तो पढ़े ही जा रहे थे, पत्रिकाएं भी खूब पढ़ी जा रही थीं. अखबार तो खैर अभी भी पढ़े जा रहे हैं, पत्रिकाओं के बारे […]
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