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दिल्ली के चुनाव नतीजे और बिहार की चुनावी जमीन

पटना: दिल्ली में चुनाव नतीजे आ चुके. अब चुनाव से गुजरने की बारी बिहार की है. बिहार के चुनाव को हमेशा ही पेचीदा माना जाता रहा है. इसकी खास वजह सामाजिक बुनावट और उसके अंतर्विरोधों में तलाशी जाती है. यों, दिल्ली से बिहार का कोई सीधा रिश्ता नहीं है और दोनों जगहों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि […]

पटना: दिल्ली में चुनाव नतीजे आ चुके. अब चुनाव से गुजरने की बारी बिहार की है. बिहार के चुनाव को हमेशा ही पेचीदा माना जाता रहा है. इसकी खास वजह सामाजिक बुनावट और उसके अंतर्विरोधों में तलाशी जाती है. यों, दिल्ली से बिहार का कोई सीधा रिश्ता नहीं है और दोनों जगहों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि जुदा है. लेकिन, कॉमन मैन की परेशानी एक जैसी है. वह दिल्ली में भी है और बिहार में भी.
बीते दो विधानसभा चुनावों पर नजर डालें, तो उसने बहुत कुछ साफ कर दिया है. उसने बताया है कि बिहारी समाज के सोचने-समझने का तरीका बदल रहा है. लोग सकारात्मक बदलाव चाहते हैं. वे चाहते हैं कि उसका नेतृत्व बेदाग हो. विकास को मुकाम मिले और भ्रष्टाचार पर वार हो. नयी पीढ़ी जातियों के खांचे से निकल कर कुछ नया सृजित करने के इरादे को अभिव्यक्त कर चुकी है. दिल्ली के चुनाव में भाजपा के प्रति सामने आया वोटरों का अविश्वास विस्मित करता है. चुनाव जीतनेवाली आम आदमी पार्टी का नेतृत्व इस कामयाबी पर चकित है. अरविंद केजरीवाल कह रहे हैं, हमें इस जीत से डर लग रहा है. अब यह स्वाभाविक सवाल है कि बिहार चुनाव से ठीक पहले भाजपा की यह पराजय उसे हतोत्साहित करेगी? इस सवाल का विस्तार है कि क्या भाजपा विरोधी ध्रुवीकरण तेज होगा? पार्टियों के स्तर पर यह ध्रुवीकरण लोकसभा चुनाव के बाद हो गया था. जब दो बड़ी सामाजिक शक्तियां जदयू और राजद एक-दूूसरे के करीब आ गये थे. उनके बीच की एकता ने कई मौकों पर भाजपा को पीछे धकेल दिया था. सामाजिक स्तर पर भी अपनी-अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने की होड़-सी मची हुई है.

अलग-अलग सामाजिक समूूहों की गोलबंदी के नुस्खे आजमाये जा रहे हैं. असल ध्रुवीकरण इसी मोरचे पर होना है. इसमें दो राय नहीं कि बिहार में नीतीश कुमार की अगुआई में लड़े गये पिछले दो चुनावों का एजेंडा कमोबेश वही था, जो इस बार दिल्ली के चुनाव में तारी रहा. बात गुड गवर्नेस की थी. ईमानदार नेतृत्व की चाहत थी. लोगों के साथ लगातार संवाद के जरिये एक रिश्ता कायम करने की कोशिश भी थी. डेवलपमेंट बड़ा मुद्दा बना था. लोगों को बिजली-पानी देने का वादा था. भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का संकल्प था.

ये ऐसे मुद्दे रहे हैं, जिनकी चारों ओर बिहार घूमता रहा है. खासतौर से 2005 के विधानसभा चुनाव के बाद से लेकर अब तक. अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के इंतजाम हुए. 2005 के दौरान जहां गरीबी रेखा से नीचे रहनेवालों की तादाद 54 फीसदी थी, वह घट कर 33 फीसदी हो गयी. योजना आकार 2004-05 में जहां 4000 करोड़ था, वह वित्तीय वर्ष 2014-15 में 40,000 पर पहुंच गया. यानी 10 गुना की वृद्धि. दरअसल, इस रफ्तार को बनाये रखने व उसे तेज करने की जबरदस्त चुनौती आनेवाली सरकार के सामने होगी. प्रति व्यक्ति आमदनी तो बढ़ी है, पर इसकी असमानता को कम करना गंभीर किस्म की पहल की मांग करती है.
अपराध के सत्ता-शीर्ष से जुड़नेवाले सिरे के बहस में न पड़ें, तो भी कानून-व्यवस्था के मोरचे पर लोगों ने बदलाव को महसूस किया. 85 हजार से ज्यादा अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई हुई.

गंभीर किस्म के अपराधों में ट्रायल की प्रक्रि या में तेजी लायी गयी. इन सबका संदेश था कि अपराध करनेवाला बचेगा नहीं. यानी राजसत्ता का इकबाल जो बिखर रहा था, उसकी कड़ियों को जोड़ा गया. करीब 55 हजार किलोमीटर नयी सड़कों का निर्माण हुआ. बिजली-पानी को लेकर आम आदमी पार्टी ने वादा किया है. उन वादों की कसौटी पर इस नवोदित पार्टी को दिल्ली के मतदाता तोलेंगे. इस संदर्भ में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के उस वादे को याद करने की जरूरत है, जब उन्होंने बिजली नहीं पहुंचाने पर 2015 के विधानसभा चुनाव में वोट नहीं मांगने की बात कही थी. बिजली उपलब्ध कराना उस समय भी बड़ी चुनौती थी.

कइयों को भरोसा नहीं हो पा रहा था कि अगले दो या तीन साल में राज्य के सुदूर इलाकों में बिजली पहुंच जायेगी. पर, ऐसा हुआ. बिजली की उपलब्धता 3000 मेगावाट की हुई. हालांकि, अब भी कई इलाकों में बिजली नहीं पहुंच पा रही है. पर, इसकी वजह ट्रांसमिशन लाइन से जुड़ी हुई है. बिहार के चुनाव में बिजली भी मुद्दा बनेगी. भाजपा जदयू सरकार में अपनी साझीदारी और उस दौरान हुए काम को गिनाती है, तो इसके पीछे परिवर्तन की चाहतों को व्यापक स्वीकार्यता मिलना है. दिल्ली कभी दूर रही होगी. अब तो नहीं है. अलबत्ता वह कहावतों में जरूर दूर है. इस चुनाव में बिहार से बहुत सारे लोग प्रचार के लिए गये थे. भाजपा से भी और आप से भी.

दिल्ली में बिहारी वोटरों की तादाद कई विधानसभा क्षेत्रों में निर्णायक मानी जाती है. इस लिहाज से उन क्षेत्रों में बिहार के मंत्रियों, नेताओं और कार्यकर्ताओं को भाजपा ने उतारा था. बेहतर शासन देने का उनका भरोसा काम नहीं आया. अब देश की नजर बिहार की ओर है. साल के अंत में होनेवाले चुनाव से पहले मुद्दे सतह पर आ चुके हैं. गवर्नेस, ईमानदार नेतृत्व, भ्रष्टाचार से लड़ाई और वादों को पूरा करने के पैमाने पर नेताओं-राजनीति दलों को कसा जायेगा.

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