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बस से दिल्ली की यात्रा, कुशीनगर होते हुए गोरखपुर की वह ढलती शाम

मिथिलेश पटना से बस मुजफ्फरपुर पहुंच गयी. जिन्हें खाना लेना है या फ्रेश होना है, वे हो गये. पांच मिनट बाद बस बैरिया स्टैंड पहुंचती है. मैं भी नीचे उतर जाता हूं. यहां कई पैसेंजर सवार होते हैं. करीब आधे घंटे बस रुकने के बाद दोपहर दो बजे खुलती हैं. तमाम सीटें भर गयी हैं. […]

मिथिलेश
पटना से बस मुजफ्फरपुर पहुंच गयी. जिन्हें खाना लेना है या फ्रेश होना है, वे हो गये. पांच मिनट बाद बस बैरिया स्टैंड पहुंचती है. मैं भी नीचे उतर जाता हूं. यहां कई पैसेंजर सवार होते हैं. करीब आधे घंटे बस रुकने के बाद दोपहर दो बजे खुलती हैं. तमाम सीटें भर गयी हैं. मेरे साथ की सीट पर23 साल का युवक संतोष बैठता है. बायीं ओर की स्लीपर सेल में दो महिलाएं हैं.
उनके पिता अगली सीट पर हैं. ऊपर की स्लीपर की बनावट ऐसी है कि यदि आप उसमें सोने या बैठने गये तो दुनियादारी से दूर हो जायेंगे. गद्दानुमा बेड है. तकिया के आकार का उभार भी है. शीशे का एक दरवाजा है, जो अंदर बैठ जाने के बाद खींच कर पूरी तरह बंद कर दिया जाता है. आमतौर पर यह दंपति या दो लोगों के लिए सुरक्षित होता है.
पीछे की ऊपरी स्लीपर पर एक कॉलेज में पढ़ने वाले जोड़े को सीट मिली है. इस स्लीपर में बैठ कर आप बाहर का नजारा ले सकते हैं. पीछे की नीचे वाली स्लीपर में भी इतनी ही सीटें होती हैं. इसमें बाहर से परदा टंगा होता है. आप सोने जा रहे हैं तो परदा खींच कर एकांत लाभ कर सकते हैं. हां, ऊपर की स्लीपर सुरक्षित नहीं कही जा सकती है.
बस पूर्वी चंपारण के चकिया पहुंचती है. बस की चाल धीमी हुई, तो एक यात्री चढ़ता है. उसे गोरखपुर जाना है. भाड़ा के बारे में बकझक होने के बाद वह यात्री ड्राइवर की सीट के पीछे बैठ जाता है. बस अपनी गति से बढ़ रही है.
चंपारण की सीमा पार हो रही है. हम गोपालगंज पहुंच गये. पराकोठी में स्टॉपेज है. यहां सैम के साथ दो तीन यात्री सवार होते हैं. बाहर फोर लेन पर बस सरपट भाग रही है. पेड़, पौधे, मंदिर, मजार,पुल-पुलिये छूटते जा रहे हैं. ड्राइवर श्रीकांत शर्मा बताते हैं- देखिए साहेब, इ डुमरिया नदी है. कितना जर्जर पुल है. इसी से चलना है.
हमें बगल में एक निर्माणाधीन पुल दिखता है. टोकने पर ड्राइवर बताता है- कई साल से यह बन रहा है. भोजपुरी टोन में हिंदी बोलने की वह कोशिश करता है-पिछले साल जे बाढ़ आइल रहे ना, उमें इ पुलवो टूट गइल़. अब फिर से बनेगा. आप कितने दिनों से बच चला रहे, श्रीकांत शर्मा कहते हैं- ऐही में उमिर बीत गइल. करीब पचास साल के शर्मा के चेहरे पर पकी हुई दाढ़ी उनके अनुभवी होने का सबूत दे रही है.
एक्सीलेटर दबते ही गाड़ी तेज भागने लगती है. तभी एक यात्री की आवाज आती है: भैया, धीरे ही चलाइये. लंबा रास्ता है. पहली बार बस से जा रहे हैं. जान बचेगी तो फिर चढ़ेंगे़. ड्राइवर मुस्कुराते हुए कहता है: निश्चिंत रहीं लोग. कुछो ना होई. वह बताये जा रहा़ था, पहले लोग ट्रेन से ही चलते थे़. अब पूंजीपतियों ने बस खरीद ली है. राजस्थान के बड़े व्यापारी हैं.
उनकी कंपनी की तीन बसें चल रही हैं. एक पटना से चलती है. एक दिल्ली से और तीसरी बीच में रहती है. पुलिस को भी देना होता है. शर्मा बताते हैं, सब कुछ ऑनलाइन और फिक्स है. पेट्रोल लेना है तो कार्ड से. टाल टैक्स भी ऑनलाइन है. महीने की फिक्स रकम दी जाती है. इसी प्रकार पुलिस हो या डीटीओ सबको बंधी बधाई रकम मिलती है.
शाम होने को हैं. बस सरपट भाग रही है. शाम होने को है. ड्राइवर की केबिन में बैठ कर शाम का नजारा अच्छा लग रहा है. गोधुली बेला का सुंदर और मनोरम दृश्य आंखों से ओझल हो रहा था. नेशनल हाईवे के दोनों ओर गाड़ियां अपनी रफ्तार में भाग रही थीं. सड़क के बीच में कनैल फूल से लदे पौधे मन को भा रहे हैं. रेल के सफर में यह नजारा कहां?
गोपालगंज की सिधवलिया चीनी मिल का बोर्ड लगा है. ऐसे में चीनी मिलों के ऊपर की गयी रिपोर्ट की याद बरबस ताजा हो उठती है. मोहम्मदपुर, अरेर से हम गुजर रहे हैं. गांवों का दृष्य और समाज सब जगह एक-सा दिखता है.
मुझे अपने गांव की याद आ जाती है. शाम को हम चौक पर चाय पीने जाते हैं और देश दुनिया की राजनीति पर गरमागरम बहस में हिस्सा लेते हैं. अरेर के एक चौक पर ड्राइवर को चाय की तलब हुई. बस रुकी तो हम भी उतरे. जितनी देर चाय बनने में लगी, चाय की दुकान पर नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी की ही चर्चा चलती रही.
हमारी सवारी फिर से शुरू हो गयी. बातों ही बातों में राज्य की सीमा कब पार हो गयी, पता ही नहीं चला. हम उत्तरप्रदेश के कुशीनगर पहुंच गये हैं.
बस एक पेट्रोल पंप पर रुकती है. पीछे सूर्यास्त का नजारा दिख रहा है. अरसे बाद ढलती शाम देख कर तसल्ली हुई. खेतों से किसान घर लौट रहे हैं. हाईवे पर सब अपने मुकाम पर पहुंचने की जल्दबाजी में है.
साइकिल और पिकअप वैन पर लदे मजदूरों के चेहरे पर थकान और घर लौटने की खुशी साफ दिख रही है. खास कर दूर-दराज तक कहीं बैलों का जोड़ा नहीं दिखता. चारों ओर जेसीबी की दहाड़ है. ड्राइवर के साथ चल रहे बस का दूसरा स्टाफ शत्रुघ्न बताते हैं, गांवों में भी अब बैल कोई नहीं रख रहा‍. नेशनल हाईवे संख्या 28 के दोनों ओर खेत जुते हैं.
पर, सब के सब जेसीबी मशीन से. बस जब रुकती है तो आसपास के छोटे-छोटे लड़के कुल्लहड़ और कागज की कप लेकर चाय बेचने आ जाते हैं. ट्रेन हो या कोई चौक-चौराहा कमोबेश देश भर में चाय अब दस रुपये से कम में नहीं मिलती.
इसी बीच कंडक्टर चिल्लाता है, बैठ जाइए… गाड़ी अब गोरखपुर में ही रुकेगी. हम बस पर सवार हो जाते हैं. अपनी सीट पर बैठते हैं. साथ वाली सीट पर बैठा संतोष मजेदार बात करता है.
मेरठ के किसी कॉलेज से बीबीए की डिग्री हासिल कर नौकरी के लिए इंटरव्यू की तैयारी कर रहे संतोष को सरकारी संस्थाओं मे चल रहे करप्शन पर आक्रोश है. खास कर बैंकों के करप्शन पर वह बताता है कि उसके पिता पेंशन होल्डर हैं.
बीबीए की पढ़ाई के लिए वह मुजफ्फरपुर के ही एक राष्ट्रीय बैंक के मैनेजर से मिला तो वह शिक्षा ऋण देने को तैयार हो गये, पर कुल ऋण राशि का 20 प्रतिशत कमीशन के तौर पर मांगने लगे. हम कहां से देते. लोन नहीं मिला. संतोष कहते हैं, नरेंद्र मोदी की सरकार हो या किसी और की, करप्शन खत्म नहीं हो रहा.
(कल पढ़ेंः स्मृतियों में जब साकार होने लगते हैं श्रीराम और बुद्ध )
Prabhat Khabar Digital Desk
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