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बिहार : कर्पूरी ठाकुर का जीवन निराश कार्यकर्ताओं के लिए एक संदेश

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक इस महीने की 24 तारीख को कर्पूरी ठाकुर की जयंती मनाई जायेगी. कई जगह जयंती समारोहों की औपचारिकता पूरी की जायेगी. पर ऐसे अवसरों पर आज की स्थिति से निराश राजनीतिक कार्यकर्तागण कर्पूरी ठाकुर के नाम पर मन ही मन कुछ संकल्प लेना चाहें तो उससे उनकी निराशा देर-सवेर दूर हो […]

सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
इस महीने की 24 तारीख को कर्पूरी ठाकुर की जयंती मनाई जायेगी. कई जगह जयंती समारोहों की औपचारिकता पूरी की जायेगी. पर ऐसे अवसरों पर आज की स्थिति से निराश राजनीतिक कार्यकर्तागण कर्पूरी ठाकुर के नाम पर मन ही मन कुछ संकल्प लेना चाहें तो उससे उनकी निराशा देर-सवेर दूर हो सकती है़ दरअसल अनेक राजनीतिक कार्यकर्ता इस बात का रोना रोते पाये जाते हैं कि पैसा, खास वंश और जाति बल के बिना राजनीति में आगे बढ़ना आज असंभव हो गया है़
ऐसे में उनके लिए यह जानना जरूरी है कि कर्पूरी ठाकुर के पास इन तीनों में से कुछ भी नहीं था, फिर भी वे बिहार की राजनीति व सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे़ हालांकि कम था, लेकिन कर्पूरी ठाकुर उनके जमाने में उपर्युक्त तीनों तत्व अन्यत्र मौजूद थे़ उनसे कर्पूरी जी लड़े और जीते भी़ यह और बात है कि आज पैसा, जाति और वंशवाद का वीभत्स रूप सामने आया हुआ है़ पर कर्पूरी ठाकुर ने खुद में जो कुछ खास गुण विकसित किये थे, उसके लिए आज भी कोई पैसे नहीं लगते़ कर्पूरी ठाकुर ईमानदार, विनम्र, धैर्यवान और मेहनती थे़ कर्पूरी ठाकुर सरजमीन से अपना संपर्क लगातार कायम रखते थे़ कोई राजनीतिक कार्यकर्ता ये गुण खुद में विकसित कर ले तो बाकी कमियाें की क्षति-पूर्ति हो सकती हैं. अधिक दिन नहीं हुए जब सीपीएम के बासुदेव सिंह और माले के महेंद्र प्रसाद सिंह ऐसे ही गुणों से लैस थे.
दोनों अंत तक विधायक रहे. ऐसे कुछ नाम और भी हो सकते हैं. आज वंशवाद का बहुत रोना रोया जाता है. यदि कहीं जातीय वोट बैंक तैयार हो जायेगा तो उस वोट बैंक का मालिक परिवारवाद चलायेगा ही. कर्पूरी ठाकुर, बासुदेव सिंह और महेंद्र प्रसाद सिंह जैसा जमीनी कार्यकर्ता पैदा होने लगे तो वह कम से कम अपने क्षेत्रों में तो जातीय वोट बैंक का ताला तोड़ देने की उम्मीद कर सकता है.
अररिया लोकसभा उपचुनाव : निकट भविष्य में देश के आठ संसदीय क्षेत्रों में उपचुनाव होने वाले हैं. उन क्षेत्रों में बिहार का अररिया भी शामिल है. राजद के मो तसलीमुददीन के निधन से यह सीट खाली हुई है. वैसे तो राजद की यह एक मजबूत सीट मानी जाती है, पर इसके चुनाव नतीजे बिहार की चुनावी राजनीति की अगली दिशा के कुछ-कुछ संकेतक हो सकते हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में तसलीमुद्दीन को भाजपा और जदयू के मिले-जुले मतों से भी लगभग 80 हजार अधिक वोट मिले थे. तब राजद, भाजपा और जदयू के उम्मीदवार आमने-सामने थे.
अब बिहार का राजनीतिक समीकरण बदल गया है. अगला चुनाव भाजपा और जदयू मिलकर लड़ेंगे. उधर, लालू प्रसाद के जेल जाने के बाद राजद दावा कर रहा है कि उनके वोट बैंक में इजाफा हुआ है. इस उपचुनाव में इस दावे की भी जांच हो जायेगी. उधर भाजपा का दावा है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल में ऐसे-ऐसे काम किये हैं, जो पहले कभी नहीं हुए. अररिया के मतदाता उस दावे पर भी अपना निर्णय सुनायेंगे. जब भी आठ लोकसभा क्षेत्रों में उप चुनाव होंगे, उनके नतीजे 2019 के आम चुनाव के संकेतक साबित हो सकते हैं.
कन्या भ्रूणहत्या में कमी : हरियाणा में कन्या भ्रूणहत्या में इधर काफी कमी आयी है. 2011 में जहां हरियाणा में 1000 पुरुष के मुकाबले मात्र 834 स्त्रियां थीं, वहीं अब 914 पहुंच गयी है. राष्ट्रीय औसत 919 है. आखिर यह चमत्कार कैसे हुआ? सरकारी प्रयास से हुआ या अन्य कारणों से? जो भी हो, इससे वे राज्य सीख सकते हैं जहां इस अनुपात में काफी असंतुलन है.
कुछ साल पहले यह खबर आयी थी कि हरियाणा के युवकों की शादी केरल तथा कुछ अन्य राज्यों की लड़कियों से हो रही है. इसका अच्छा असर हो रहा है. हरियाणा में ब्याही केरल की लड़कियां जब मां बनती हैं तो वे कन्या शिशु की भी उसी तरह रक्षा व देखभाल करती हैं जिस तरह वे लड़के की करती हैं. हाल के वर्षों में हरियाणा सरकार ने लिंग अनुपात के असंतुलन को गंभीरता से लिया और अनेक अल्ट्रासाउंड मशीनों को जब्त किया, जो गर्भ शिशुओं की लिंग जांच के लिए लगायी गयी थीं. इसका भी सकारात्मक असर जरूर पड़ा होगा.
पुलिस के समक्ष कबूलनामे का महत्व बढ़ेगा? : अभी इस देश की अदालतें पुलिस के समक्ष किये गये कबूलनामे को सबूत का दर्जा नहीं देती. न्यायिक दंडाधिकारी के सामने दर्ज बयान को वह दर्जा हासिल है. मौजूदा केंद्र सरकार अब इस स्थिति को बदलना चाहती है.
उसके सामने मलिमथ कमेटी की सिफारिश का आधार मौजूद है. क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में सुधार के लिए सुझाव देने के लिए अटल सरकार ने जस्टिस मलिमथ के नेतृत्व में एक कमेटी बनायी थी. उसने 2003 में ही अन्य बातों के अलावा यह भी सिफारिश की थी कि पुलिस अफसर के समक्ष किये गये कबूलनामे को अदालतें सबूत के रूप में स्वीकार करें.
इसके लिए संबंधित कानून में संशोधन हो. पर बाद की मनमोहन सरकार ने इसे नहीं माना. जानकार सूत्रों के अनुसार मौजूदा केंद्र सरकार उस सिफारिश को लागू करने के लिए उच्चस्तरीय विचार-विमर्श कर रही है. दरअसल, केंद्र सरकार देश में आपराधिक मामलों में सजाओं की घटते दर से चिंतित है. साथ ही उस मलिमथ कमेटी की इस सिफारिश पर भी केंद्र सरकार विचार कर रही है कि न्यायाधीशों पर महाभियोग लाने की प्रक्रिया को भी सरल बनाया जाये. महाभियोग की मौजूदा प्रक्रिया जटिल है. यदि सरकार ये दोनों काम कर सकी तो उससे भारी सकारात्मक फर्क आ सकता है.
एक भूली-बिसरी याद : जीवन भर पत्रकार दूसरों के बारे में लिखता रहते रहते हैं. पर खुद उनके दिवंगत हो जाने के बाद उन पर कम ही लोग लिखते हैं या याद करते हैं. कई बार किसी पुराने पत्रकार के निधन की जब छोटी सी खबर छपती है तो मुझे लगता है कि काश! मैं उनसे हाल में मिल लिया होता. खैर ऐसे ही एक नामी पत्रकार सुधांशु कुमार घोष उर्फ मंटू दा के बारे में हमारे बीच के सबसे वरीय पत्रकार रवि रंजन सिन्हा ने 1999 में इसी अखबार में लिखा था. रवि रंजन बाबू के शब्दों में एक बार फिर पढ़ना रुचिकर होगा.
‘वे पीटीआई के पटना कार्यालय के प्रमुख थे. मगर जिस ढंग से लोग उनके प्रति सम्मान प्रकट करते थे, उसे देख कर उत्सुकता होती थी कि आखिर इस व्यक्ति में ऐसा क्या है जो लोगों को अपनी ओर खींचता है! उनकी वेश-भूषा में कोई विशेषता नहीं होती थी. मैंने उन्हें बराबर सफेद धोती कुर्ता पहने देखा. जिस पर जाड़े में एक बंडी और एक दुशाला होता. मगर जब वे फ्रेजर रोड पर, जो उस समय पटना का फ्लीट स्ट्रीट हुआ करता था, चलते तो दोनों ओर से नमस्ते, प्रणाम की वर्षा होती. याद रहे कि उन दिनों वह रोड आज जैसी चैड़ी नहीं थी.
मंटू दा अभिवादन करने वालों को उसकी आवाज से ऊंची और अपनी टनकदार आवाज में जवाब देते और मुस्कराते हुए आगे बढ़ जाते.’ रवि रंजन बाबू ने ठीक ही लिखा है कि वे समवयस्कों के साथ ही नहीं बल्कि अपने से उम्र में छोटे के साथ भी मित्रवत व्यवहार करते थे. मैंने भी ऐसा करते हुए उन्हें देखा था. खुद भी अनुभव किया था. पत्रकार के रूप में उन्होंने अपनी बड़ी गहरी छाप छोड़ी थी. ‘इंडियन नेशन’ में उनका साप्ताहिक काॅलम बहुत ही रोचक और सूचनाप्रद होता था.
और अंत में : महाराष्ट्र कैबिनेट ने महत्वपूर्ण
निर्णय किया है. वह सरकारी प्रयोजन के लिए किसानों से जो जमीन अधिगृहीत करेगी, उसका बाजार दर से चार गुणा मुआवजा देगी. ध्यान रहे कि सरकारीरजिस्ट्री दर नहीं बल्कि बाजार दर. इसके लिए संबंधित कानून में महाराष्ट्र सरकार संशोधन करने जा रही है. उस राज्य सरकार को लगता है कि इतने अधिकमुआवजे के बाद जमीन के अधिग्रहण में दिक्कत नहीं होगी और विकास कार्यों के लिए जमीन आसानी से उपलब्ध होगी.

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