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भ्रष्टाचार को क्यों बनने दिया गया लोकतंत्र की अपरिहार्य उपज
सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘भ्रष्टाचार और पाखंड को लोकतंत्र की अपरिहार्य उपज नहीं बनने दिया जाना चाहिए जैसा कि आज हो गया है.’ आजादी के तत्काल बाद सरकारों में जो कुछ हो रहा था, उससे महात्मा गांधी चिंतित थे. उन्होंने भ्रष्टाचार की शिकायतें मिलने पर बिहार के एक कैबिनेट […]
सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘भ्रष्टाचार और पाखंड को लोकतंत्र की अपरिहार्य उपज नहीं बनने दिया जाना चाहिए जैसा कि आज हो गया है.’ आजादी के तत्काल बाद सरकारों में जो कुछ हो रहा था, उससे महात्मा गांधी चिंतित थे. उन्होंने भ्रष्टाचार की शिकायतें मिलने पर बिहार के एक कैबिनेट मंत्री को पदच्युत कर देने की सलाह दी थी.
पर उनकी बात नहीं मानी गयी. 1967 के आम चुनाव में बिहार में कांग्रेस की पहली बार पराजय हुई थी. उस पराजय के लिए जिम्मेवार नेताओं में उस खास नेता के भ्रष्टाचरण का सबसे बड़ा ‘योगदान’ बताया गया. आजादी के तत्काल बाद प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि °‘भ्रष्टाचारियों को नजदीक के लैम्प पोस्ट से लटका दिया जाना चाहिए.’
पर यह काम भी वह नहीं कर सके. भ्रष्ट लोग फलते-फूलते गये. पहले भ्रष्ट लोग अंडे से अपना काम चला लेते थे. बाद में मुर्गी को ही मार कर खाने लगे. बाद के वर्षों में सरकारी पैसों की इतनी लूट होने लगी कि टिकाऊ संरचना बनना भी कठिन होने लगा. अब तो देश में ‘प्राक्कलन घोटाला’ का दौर है. प्रधानमंत्री बनने के बाद राजीव गांधी ने कहा था कि ‘सत्ता के दलालों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए.’ वह भी नहीं हो सका. विडंबना यह रही कि बोफर्स दलाली के शोर के बीच ही 1989 के चुनाव में केंद्र में कांग्रेस की सरकार की पराजय हो गयी. 1991-1996 की नरसिंह राव की सरकार अल्पमत की सरकार थी. बाद के वर्षों में कभी कांग्रेस को लोकसभा में अपना बहुमत नहीं हुआ. समय बीतने के साथ स्थिति बिगड़ती चली गयी. इसी पृष्ठभूमि में सन 2003 में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह ने कह दिया था कि ‘राजनेता कैंसर हैं जिनका इलाज अब संभव नहीं.’ तब अनेक लोग लिंगदोह से असहमत थे.
पर यह जरूर मानने लगे थे कि चीजें तेजी से बिगड़ रही हैं. राज्यसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता मन मोहन सिंह ने 1998 में कहा था कि ‘इस देश की पूरी व्यवस्था सड़ चुकी है.’ पर जब सिंह खुद प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने इस सड़न को रोकने के लिए क्या किया? उल्टे उन्होंने जो कुछ किया, वह देश ने देखा और भोगा. 2014 के चुनाव में कांग्रेस लोकसभा में 44 सीटों पर सिमट गयी. इस देश के अधिकतर नेताओं ने प्रतिपक्ष में रहने पर तो अपने राजनीतिक विरोधियों के भ्रष्टाचार पर खूब हाय-तोबा मचायी, कार्रवाइयां कीं. पर जब वे सत्ता में आये तो खुद बहती गंगा में हाथ धोया. अपवादों की बात और है. अपवाद स्वरूप जो भी अच्छे नेता इस देश में बचे हुए हैं, वे या तो सत्ता के मोह में डूबे हुए हैं या फिर भ्रष्टाचारियों के खिलाफ बौने साबित हो रहे हैं. सत्ता संभालते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को आश्वासन दिया था कि ‘ वे न तो खायेंगे और न ही किसी को खाने देंगेे.’
मोदी मंत्रिमंडल के किसी सदस्य पर तो घोटाले का अब तक कोई आरोप नहीं लगा है, पर सरकार के दूसरे अंग लगभग पहले ही जैसे ‘काम’ कर रहे हैं. लगता है कि वे मोदी से भी अधिक ताकतवर हैं. संभवतः इसलिए तीन साल के शासनकाल के बाद भी प्रधानमंत्री को 6 अप्रैल, 2017 को साहिबगंज में यह कहना पड़ा कि ‘भ्रष्टाचार और ब्लैक मनी ने दीमक की तरह चाटकर इस लोकतंत्र को बरबाद कर दिया है.
इसके खिलाफ संघर्ष जारी रहेगा.’ पर सवाल है कि लोगबाग कब तक प्रतीक्षा करेंगे? मोदी सरकार की उपलब्धि और विफलताओं का सही आकलन तो 2019 में हो जायेगा. पर इस समस्या की गंभीरता को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी याद आती है. उसने 5 अगस्त, 2008 को ही कह दिया था कि ‘भगवान भी इस देश को नहीं बचा सकता है.°’
मधु लिमये से एनसी सक्सेना तक के एक ही स्वर : वैसे मधु लिमये तो 1988 में ही इस नतीजे पर पहुंच गये थे कि ‘मुल्क के शक्तिशाली लोग इस देश को बेच कर खा रहे हैं.’
सन 1998 में तत्कालीन केंद्रीय ग्रामीण विकास सचिव एनसी सक्सेना ने कहा कि ‘इस देश में भ्रष्टाचार में जोखिम कम और लाभ ज्यादा है.’ याद रहे कि सक्सेना की इस टिप्पणी के बावजूद ‘जोखिम अधिक और लाभ कम’ करने वाले किन्हीं कानूनी प्रावधानों की जरूरत इस देश की सरकारें नहीं समझ रही हैं.
इस दिशा में आधे-अधूरे मन से कहीं कुछ काम भी हुए हैं तो उसका कोई खास लाभ देश को नहीं मिल रहा है. याद रहे कि मधु लिमये ऐसे नेता थे जो न तो स्वतंत्रता सेनानी पेंशन लेते थे और न ही सांसद पेंशन. अखबारों में लिखे अपने लेखों के पारिश्रमिक से ही जीवनयापन करते थे.
अब जरा आज के नेता को देखिए! : केंद्र सरकार प्रत्येक सांसद पर हर माह 2 लाख 70 हजार रुपये खर्च करती है. यह आंकड़ा 2015 का है. इसके बावजूद इस बुधवार को राज्यसभा में नरेश अग्रवाल ने कहा कि मौजूदा तनख्वाह से सांसदों का काम नहीं चल रहा है. सांसदों का दबाव जारी रहा तो सरकार 2.70 लाख की राशि देर-सवेर बढ़ा ही देगी.
यह सब ऐसे देश में हो रहा है जहां के सरकारी अस्पतालों के पास गंभीर मरीजों के लिए भी इलाज की व्यवस्था नहीं है. क्योंकि सरकारें धनाभाव से जूझ रही हैं. आये दिन यह खबर आती रहती है कि अस्पताल में मृतक मरीज के लिए शव वाहन का प्रबंध नहीं हो सका.
कहीं शव दोपहिया पर ढोया जाता है तो कहीं ठेले पर. पटना के एक बड़े सरकारी अस्पताल की ताजा खबर यह है कि अस्पताल के भीतर गंभीर मरीज को परिजन चादर पर रखकर उठा रहे हैं और एक जगह से दूसरी जगह पहुंचा रहे हैं.
पटना एम्स की मारक उपेक्षा : पटना एम्स में भी साधन के अभाव में मरीजों का उचित इलाज नहीं हो रहा है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री अस्सी के दशक में पटना में विद्यार्थी परिषद के नेता थे. परिषद की खबरों के हैंडआउट लेकर अखबारों के दफ्तरों का चक्कर लगाते मैंने उन्हें देखा था. यानी उनका बिहार से जो लगाव होना चाहिए था, वह नहीं है.
जबकि दिल्ली एम्स के कुल मरीजों में बिहार के मरीजों का प्रतिशत 40 है. इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए पटना के निर्माणाधीन एम्स का निर्माण जल्द पूरा कर लिया जाना चाहिए था. 2004 में पटना एम्स का शिलान्यास हुआ था. अब तक 50 प्रतिशत काम भी पूरा नहीं हुआ है. दरअसल केंद्र सरकार पूरा फंड ही नहीं देती. हां, सांसदों के वेतन भत्ते के लिए उसके पास पैसों की कभी कोई कमी नहीं रहती.
लोकसभा टीवी और राज्य सभा टीवी : अब तक राज्यसभा टीवी और लोकसभा टीवी के अलग-अलग राजनीतिक स्वर रहे हैं. अब वह बात नहीं रहेगी.
वैसे पहले दो स्वर होने के कारण भी रहे हैं. लोकसभा की स्पीकर पहले भाजपा की नेता थीं. राजग का बहुमत राज्यसभा में नहीं है. राज्यसभा के निवर्तमान सभापति यानी उप राष्ट्रपति कांग्रेसी पृष्ठभूमि के रहे हैं. अब उस पद को अगले उप राष्ट्रपति संभालेंगे. वह भाजपा के अध्यक्ष भी रह चुके हैं. अब या तो राज्यसभा टीवी और लोकसभा टीवी का विलयन हो जायेगा या फिर पिछले विरोधाभास की समाप्ति हो जायेगी.
और अंत में : संविधान के अनुच्छेद – 212 के अनुसार ‘न्यायालयों द्वारा विधायिकाओं की कार्यवाहियों की जांच नहीं की जा सकेगी.’ जब संविधान बना था, उन दिनों सदन की कार्यवाही के सीधे प्रसारण की सुविधा नहीं थी. देवताओं के बारे में राज्यसभा में एक सपा नेता के कुवचन को देखते हुए अब नयी व्यवस्था की जरूरत आ पड़ी है. या तो सदनों में उच्चारित ऐसे कुवचनों के खिलाफ अदालत में मुकदमा चलाने की संवैधानिक छूट मिले या फिर सदन की कार्यवाहियों का सीधा प्रसारण यथाशीघ्र बंद हो.
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