मुजफ्फरपुर: अब तक प्रोटीन का सबसे बड़ा श्रोत दूध, मछली व मांस को माना जाता रहा है. अब इस श्रेणी में मक्का का नाम भी जुड़ गया है. राजेंद्र कृषि विवि के वैज्ञानिकों ने पांच साल के शोध के बाद इसे संभव कर दिखाया है. इस मक्का का नाम दिया गया है, शक्तिमान-पांच. इसे क्वालिटी प्रोटीन मक्का के नाम से भी जाना जाता है. इस प्रभेद को सीएमएल-10061 व सीएमएल-165 को क्रॉस करा कर तैयार किया गया है.
राजेंद्र कृषि विवि की मक्का शाखा के फसल समन्वयक डॉ मृत्युंजय कुमार की मानें तो इस मक्का में प्रोटीन की मात्र दस प्रतिशत तक होती है, जो दूध, मांस व मछली से ज्यादा है. यही नहीं, इस मक्के से रोटी के अलावा फुलका, जलेबी, दही बाड़ा, पापड़, रसगुल्ला जैसे उत्पाद भी तैयार किये जा सकते हैं. प्रोटीन की प्रचुरता के कारण मछली के दाने के रूप में इसका उपयोग लाभदायक हो सकता है. प्रभेद को रबी व खरीफ दोनों फसल के रूप में लगाया जा सकता है. रबी में इस प्रभेद को तैयार होने में औसतन 150 व खरीफ में 105 से 110 दिन लगते हैं. प्रति हेक्टेयर उत्पादन औसत 60 से 65 क्विंटल तक होता है.
मृदा में पोषक तत्व की कमी चुनौती मक्का के उत्पादन के लिए मृदा में सभी सोलह पोषक तत्वों की जरूरत होती है. पर इनमें से नेत्रजन, फॉस्फोरस व पोटाश काफी अहम होता है.
वैज्ञानिक शोधों के अनुसार
उत्तर बिहार की मिट्टी में इन पोषक तत्वों का वितरण समान नहीं है. कहीं की मिट्टी में जिंक, कहीं फॉस्फोरस तो कहीं पोटाश की कमी पायी गयी है, तो कहीं मिट्टी में नेत्रजन के अत्यधिक उपयोग के
कारण मिट्टी की उर्वरा शक्ति में ह्रास हुआ है. डॉ मृत्युंजय के अनुसार, इसका कारण किसानों में जागरूकता की कमी है.
15 टन प्रति हेक्टेयर उत्पादन का लक्ष्य : कृषि वैज्ञानिक इन दिनों मक्का का उत्पादन प्रति हेक्टेयर 10 से 15 हेक्टेयर तक पहुंचाना चाहते हैं. डॉ मृत्युंजय कुमार के अनुसार, मक्का के उत्पादन को बढ़ाने में कंजरवेशन एग्रीकल्चर (संरक्षण कृषि) सहायक साबित हो सकता है. इसके तहत मशीन के माध्यम से खेतों की मिट्टी का समान वितरण, मिट्टी का स्थायी कार्बनिक रक्षण व एक निश्चित दूरी पर बीजों की बुआई की जाती है.
इसके लिए कई प्रकार के कृषि यंत्र बाजार में उपलब्ध हैं. डॉ कुमार की मानें तो कृषि की यह पद्धति कम लागत वाली होती है व फसलों की उत्पादन क्षमता बढ़ती है.