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दाखिले से लेकर रिजल्ट तक का होता है ठेका!

वित्त रहित शिक्षा. कॉलेज मैनेजमेंट के इशारों का खेल, हर स्तर पर मैनेज होती हैं चीजें शोषण व पैसा कमाने की मशीन बने कॉलेज मनमानी कर करवाया जाता है एडमिशन शैलेंद्र मुजफ्फरपुर : इंटर के टॉपर्स के बहाने वित्त रहित कॉलेजों पर चरचा हो रही है, लेकिन इनसे जुड़े शिक्षकों, कर्मचारियों, विद्यार्थियों व अभिभावकों के […]

वित्त रहित शिक्षा. कॉलेज मैनेजमेंट के इशारों का खेल, हर स्तर पर मैनेज होती हैं चीजें
शोषण व पैसा कमाने की मशीन बने कॉलेज
मनमानी कर करवाया जाता है एडमिशन
शैलेंद्र
मुजफ्फरपुर : इंटर के टॉपर्स के बहाने वित्त रहित कॉलेजों पर चरचा हो रही है, लेकिन इनसे जुड़े शिक्षकों, कर्मचारियों, विद्यार्थियों व अभिभावकों के बीच सालों से ऐसी बातें होती रही हैं. ऐसे ज्यादातर कॉलेज पैसा बनाने और शोषण की मशीन बन गये हैं. इनमें छात्रों के दाखिले से लेकर रिजल्ट तक का ठेका लिया जाता है. डंके की चोट पर मनचाहा रिजल्ट दिलाने का दावा होता है. ऐसे कॉलेजों का रिजल्ट भी इसकी गवाही देता है.
वित्त रहित शिक्षा की शुरुआत के समय जो परिकल्पना की गयी थी, वो उसके शुरू होते ही ध्वस्त होने लगी. हालांकि इसके बीच बड़े पैमाने पर नये खुलनेवाले कॉलेजों को मान्यता देने का काम चलता रहा. देखते ही देखते रसूखदारों (ज्यादातर नेताओं) के ऐसे सैकड़ों कॉलेज खुल गये, जहां मोल-तोल का खेल चलने लगा. शुरू में इससे जुड़े शिक्षकों का ध्यान पढ़ाई की ओर था, लेकिन धीरे-धीरे मैंनेजमेंट के इशारे पर वो उन कामों में लग गये, जो कॉलेज को उसकी शर्तो पर आगे ले जाने के लिए थे. इसमें पढ़ाई गौण होती गयी. ये बातें कहते हुये शिक्षा से जुड़े बड़े नाम कहते हैं कि इसमें अमूल चूल परिवर्तन की जरूरत है. अगर ऐसा नहीं होगा, तो अभी जो कार्रवाई हो रही है. उसका ज्यादा फायदा नहीं होनेवाला, क्योंकि ऐसे लोग किसी दूसरे माध्यम से सक्रिय हो जायेंगे और फिर से मनमानी करने लगेंगे.
वित्त रहित शिक्षा के बारे में जानकारी रखनेवाले संबंद्ध कॉलेजों से जुड़े अधिकारी इसे दुर्भाग्यपूर्ण बताते हैं. कहते हैं कि 2008 का साल इसके लिए जिम्मेवार है, जब रिजल्ट से कॉलेजों के अनुदान को जोड़ दिया गया. इसके बाद से जो गिरावट आयी, वह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि तभी से शिक्षकों के ऊपर रिजल्ट देने का दबाव बढ़ने लगा. इसके बाद हथकंडों का खेल और तेजी से बढ़ा. मुजफ्फरपुर के एक नामी कॉलेज के प्राचार्य कहते हैं कि हमारे यहां की सीटें बाद में भरती हैं, जबकि वित्तरहित कॉलेजों की सीटें नामांकन शुरू होते ही भर जाती हैं, क्योंकि वहां रिजल्ट की गारंटी मिलती है. इसलिए अभिभावक से लेकर छात्रों तक वित्त रहित स्कूलों की ओर रुख करते हैं.
वित्त रहित कॉलेजों में कुछ ऐसे भी हैं, जहां पर अच्छी पढ़ाई होती है. वहां मैनेजमेंट छात्रों से लेकर शिक्षकों तक पर ध्यान देता है, लेकिन ऐसे कॉलेजों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है, ज्यादातर ऐसे कॉलेज हैं, जिनके प्रबंधन एक तरह से व्यापार में लगे हैं. ये कहते हुये एक पूर्व कुलपति कहते हैं कि ज्यादातर वित्त रहित कॉलेज मानकों पर खरे नहीं उतरते हैं, लेकिन मान्यता बढ़ती रहती है. न उनके पास पर्याप्त जमीन होती है, न कॉलेज भवन होता है, न खेल का मैदान होता है, न प्रयोगशाला होती है और न ही योग्य श्क्षिक. इसके बाद भी वो अच्छा रिजल्ट देते हैं, क्योंकि उनके मैनेजमेंट हर तरह का हथकंडा अपननाता है.
छात्र की कहानी
टॉपर बनाने के लिए वित्तरहित कॉलेज में डाला
अपने और छात्र के नाम के लिए अभिभावक किस कदर जबरदस्ती करते हैं. ये उत्तर बिहार के एक टॉपर छात्र की कहानी से पता चलता है. अब उक्त छात्र फरार है. उसके घर पर पुलिस ने इश्तेहार चिपका दिया है, इसके बाद भी वो थाने में पेश नहीं हुआ. छात्र से जुड़े उसके साथी बताते हैं कि वो सीबीएसइ बोर्ड के स्कूल में पढ़ता था. पढ़ाई अच्छी चल रही थी, लेकिन अभिभावक उस पर लगातार टॉपर बनने का दबाव बना रहे थे.
उन्हें लगा कि वित्तरहित कॉलेज से वो अपने बच्चे को टॉप करा सकते हैं. इसके बाद उन्होंने उसका नाम सीबीएसइ स्कूल से कटवा कर एक वित्त रहित कॉलेज में करवा दिया. इस बार रिजल्ट आया, तो छात्र टॉपरों की सूची में आ गया, क्योंकि कॉलेज प्रबंधन से अभिभावकों ने पूरा सौदा कर रखा था, लेकिन इसी बीच रूबी राय प्रकरण के बाद टॉपरों की जांच हुई, तो उक्त टॉपर छात्र उसमें पास नहीं हो सका. हालांकि परीक्षा में जाने समय तक उसके अभिभावक दावा कर रहे थे कि हमारे बच्चे ने पढ़ कर पास किया है.
इससे पहले जिस दिन रिजल्ट आया था, उस दिन छात्र के अभिभावक अपने जानकारों को फोन करके बता रहे थे कि हमारे बेटे ने नाम रोशन किया है. प्रदेश में टॉप किया है, लेकिन अब छात्र तो फरार है ही, उससे अभिभभावक भी भूमिगत हैं, जिन लोगों से फोन करके वो अपने बेटे की पढ़ाई का गुणगान कर रहे थे. उनके सामने अब निकलने की हिम्मत नहीं हो रही है.
वित्त रहित शिक्षक की जुबानी
हीन भावना से ग्रसित हो जाते हैं हम
हम लोग भी सरकारी स्कूलों में पढ़ानेवाले शिक्षकों की तरह पढ़े हैं. उन्हीं के बराबर डिग्री हासिल किये हैं, लेकिन उनकों डेढ़ लाख तक वेतन मिलता है, तो हमे वेतन के लिए अपने मैनेजमेंट की कृपा पर रहना पड़ता है. साल-दो साल में रिजल्ट के बाद जब अनुदान आता है, तब हम लोगों की निगाहें उसी पर टिकी रहती हैं.
अनुदान से ही हमारे घर का खर्च चलता है, लेकिन उसमें भी कॉलेज प्रबंधन बड़ा हिस्सा ले लेता है, जब से पास होने पर अनुदान जोड़ा गया है, तब से ज्यादा गिरावट आ गयी है. हम लोगों का समाज में सम्मान भी नहीं होता है, जबकि हम भी सरकारी स्कूलों की तरह छात्रों को पढ़ाने का काम करते हैं. उनसे बेहतर रिजल्ट देते हैं. इसके बाद भी लोग हमें वित्त रहित वाला कह कर पुकारते हैं.
तौहीन तब और ज्यादा होती है, जब हम लोग किसी सरकारी कॉलेज में जाते हैं, तो वहां का क्लर्क व चपरासी तक हमारे लिये कुरसी नहीं छोड़ता है. कहता है कि वित्त रहित वाला शिक्षक आया है. हमें इतना पैसा नहीं मिलता है कि हम अपने बच्चों को अच्छा पढ़ा सकें. उनकी शादी कर सकें. किसी बड़े काम के लिए हम लोगों को अपनी पैतृक संपत्ति का सौदा करना पड़ता है. ये हमारे लिये शर्म की बात होती है. अब तो कई वित्त रहित कॉलेजों से हमारे साथी रिटायर होने लगे हैं. उनकी जीवन की पूंजी क्या है? अगर घर वाले सवाल करें, तो उनके पास कोई उत्तर नहीं होता है.
विवि अधिकारी की बात
शोषण का दूसरा नाम वित्त रहित शिक्षा नीति
उत्तर बिहार के एक विवि के अधिकारी कहते हैं कि शोषण का दूसरा नाम वित्त रहित शिक्षा नीति है.हम लोगों को लाखों रुपये वेतन मिलता है, लेकिन हमारे सामन या हमसे ज्यादा योग्यता रखनेवाला वित्तरहित कॉलेजों में पैसे-पैसे को मोहताज रहता है. उसकी रोजी-रोटी सरकारी अनुदान व चंद हजार रुपयों पर टिकी होती है, जो उसे मैनेजमेंट बड़ी मान-मनौव्वल के बाद देता है. अगर नहीं दे, तब भी शिक्षक कुछ नहीं कह सकता है. इस नीति को जल्दी से जल्दी बदल देना चाहिये. अभी जो मामला चल रहा है. मेरा यही कहना है, जब तक कथित बड़े शिक्षा माफियाओं को कड़ी सजा नहीं होगी, तब तक हालात सुधरनेवाले नहीं है.
सबसे बड़ी बात अगर हम शिक्षा की स्थिति को सुधारना चाहते हैं, तो प्राथमिक व मध्य विद्यालयों की तरह कॉलेजों के शिक्षकों का भी न्यूनतम वेतन लागू करें, ताकि मैनेजमेंट के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़े. वेतन का पैसा सीधे शिक्षकों के एकाउंट में जाये. मैनेजमेंट में सरकार का हस्तक्षेप हो, ताकि कॉलेज प्रशासन अपनी मनमानी नहीं कर सके. ये सब होता है, तो कुछ स्थिति बदल सकती है, क्योंकि मेरा मानना है कि वित्त रहित कॉलेजों के शिक्षकों को पढ़ाई के अलावा अभी उसे हर तरह के प्रपंच में लगाया जाता है, जिससे कॉलेज का रिजल्ट अच्छा आये.

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