गया: संस्कारों और संस्कृतियों की अहमियत परिवारों पर ही निर्भर करती है. लेकिन, बदलते परिवेश और जीवन की आपाधापी में संस्कारों व उनके मूल्यों का क्षरण होता जा रहा है. संयुक्त परिवार या तो विलुप्त हो गये हैं, या फिर विलुप्तता के आखिरी पायदान पर हैं. एकल परिवार ने उसके अस्तित्व पर ऐसा कुठाराघात किया कि वह अपनी पहचान व महत्व को खो बैठा. ऐसे में किसी संयुक्त परिवार को देखना व उनकी भावनाओं को समझना एक सुखद अनुभव प्रदान करता है. एक ऐसा ही परिवार है नेपाल का, जो अपने पूर्वजों का पिंडदान करने मोक्षधाम आया है. दरअसल, हम भारतीय संस्कृति को सबसे समृद्ध मानते हैं, जहां सभ्यता, संस्कृति व रिश्तों के लिए उच्च दृष्टि रखी जाती है.
लेकिन नेपाल के सुलभ पाड़ी का परिवार भारत के उन परिवारों के लिए सीख दे रहे हैं जो अपने संस्कारों व उनके मूल्यों से विमुख हो रहे हैं. सुलभ पाड़ी छह भाई हैं और उनकी उम्र 72 साल है. उनके अलावा इनके भाइयों में रामकृष्ण मरासिनी (67), वासुदेव मरासिनी (60), नीलकंठ मरासिनी (59) नारायण मरासिनी (55) एकनाथ मरासिनी (50) हैं जो अपनी पत्नियों के साथ पूर्वजों का पिंडदान करने करने आये हैं.
सुलभ पाड़ी बताते हैं कि उनके परिवार में कुल 59 सदस्य हैं. सभी लोग एक साथ रहते हैं. उनके छोटे भाई रामकृष्ण बताते हैं कि मेरे परिवार में सभी निर्णय बाबू (बड़े भाई) करते हैं. परिवार के किसी भी सदस्य को उनके निर्णय के खिलाफ जाने की इजाजत नहीं है. सबसे छोटे भाई एकनाथ बताते हैं कि बाबू अपने निर्णयों को हम पर थोपते नहीं हैं, बल्कि हमसे पूछ कर ही निर्णय लेते हैं. नेपाल में इनका व्यवसाय है, जिसे इनके बच्चे मिल कर संभालते हैं. पिंडदान के बारे में उनका कहना है कि हमारा संस्कार भारत के काफी करीब है, इसलिए हम यहां आएं हैं.
इस परिवार की विशेषता सिर्फ संयुक्त परिवार को लेकर ही नहीं है. यह परिवार पिंडदान के लिए किसी पंडित का सहारा नहीं लिया. सभी भाई स्वयं मंत्रोच्चरण कर पिंडदान की प्रक्रिया को बखूबी निभायी. इस बारे में उनकी पत्नियां कहती हैं कि हमलोग ब्राrाण हैं, इस नाते हमारा कर्तव्य है कि ब्राrाणों के कर्तव्यों का निर्वहन करें.