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पिता के लिए मोक्ष मांग रही नन्ही खुशी

प्रभंजय, गया न जाने तुम किस जहां में चले गये, तुम बिन ये जीवन बीत रहा है. लेकिन, जब तक तुम हमारे साथ रहे, हमारे लिए कुछ यादें छोड़ गये. अब उन्हीं के सहारे जीवन भर अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए गयाजी में आशीर्वाद मांगने आयी हूं. तुम्हारे साथ मैंने भी कुछ ही […]

प्रभंजय, गया न जाने तुम किस जहां में चले गये, तुम बिन ये जीवन बीत रहा है. लेकिन, जब तक तुम हमारे साथ रहे, हमारे लिए कुछ यादें छोड़ गये. अब उन्हीं के सहारे जीवन भर अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए गयाजी में आशीर्वाद मांगने आयी हूं. तुम्हारे साथ मैंने भी कुछ ही दिनों में जो सपने देखे थे, अब उनमें ‘खुशी’ नामक फूल भी खिल चुकी है. अब उसी ‘खुशी’ की खुशी ही मेरे जीवन का धर्म, कर्तव्य और ध्येय रह गये हैं. ये शब्द हैं पश्चिम बंगाल के हावड़ा की निवासी अंजना गुहौर के. उनके साथ उनकी बेटी खुशी भी आयी है, अपने पिता का पिंडदान करने. एक साल की खुशी जो ठीक से बोल भी नहीं सकती, अपने फर्ज को निभा रही है. हालांकि, उसे नहीं पता कि क्या हो रहा है. खुशी की मां अंजना बताती हैं कि वह छोटी है, इसलिए विधि मैं पूरी कर रही हूं. दो दिनी कर्मकांड में गयाजी के विभिन्न वेदियों पर पिता व पूर्वजों का पिंडदान कर उनकी आत्मा की शांति की प्रार्थना कर रही हूं. पूर्वजों से खुशी की खुशी के लिए आशीर्वाद भी मांग रही हूं. वह बताती हैं कि बचपन में ही मेरा भी पिता का साथ छूटा, तो मां ने ही पिता का प्यार दिया. फिर भी दिल का एक कोना पिता के प्यार के लिए खाली रही रहा. विजय गुहौर से शादी के बाद खाली पड़े जीवन के सारे हिस्से प्रेम से सराबोर हो गये.

ससुराल में एक साल कैसे गुजरा, पता नहीं चला. इसी बीच गोद में खुशी आ गयी. विजय सिलीगुड़ी में ड्यूटी पर थे. लेकिन, एक माह बाद ही खुशियां छीन गयीं. वह खुशी को देखने पहली बार घर आ रहे थे. रास्ते में ही सड़क दुर्घटना हो गयी, दो माह तक उन्हें होश नहीं आया. मेरी मां ने उनके लिए सारे खजाने खोल दिये. लेकिन, होनी को कौन टाल सकता है. जीवन पर गम के बादल छा गये. आगे कुछ और पूछते ही अंजना की आखों से आंसुओं की धारा बह निकली. आवाज ने साथ नहीं दिया. भर्राये गले से कहा, अब खुशी के बोल में ही उनकी बोली महसूस करती हूं. पहले घूमने का बड़ा शौक था, अब कहीं जाने का मन नहीं करता. मां मालती देव की जिद पर उनकी आत्मा की शांति के लिए खुशी के हाथों उनका पिंडदान करा रही हूं. हम दोनों ने जो सपने देखे थे, उन्हें पूरा करना ही मेरा धर्म रह गया है. वह बताती हैं, एक साथ इतने सारे गमों के बाद भी ससुरालवालों को उसके दर्द नहीं दिखे. 11 माह पहले ही बहू बना कर घर लाये थे, बेटे की मौत का कर्मकांड पूरा होते ही वापस मायके पहुंचा दिया. खुशी के चाचा व दादा भी हैं, लेकिन अब मिलना तो दूर, खोज-खबर तक नहीं लेते.

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