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कुलपति के कारण पृच्छा का सौंपा जवाब

दरभंगाः हाइकोर्ट में दायर वाद संख्या- सीडब्ल्यूजेसी 13772/13, डॉ जितेंद्र कुमार एवं अन्य बनाम कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा एवं अन्य से संबंधित अभिलेखों को लेकर कुलपति डॉ रामचंद्र झा एवं कुलसचिव डॉ सुधीर कुमार चौधरी के बीच जिस तरह तलवारें खिंच गई हैं, उससे साफ जाहिर होता है कि विश्वविद्यालय की कार्य संस्कृति […]

दरभंगाः हाइकोर्ट में दायर वाद संख्या- सीडब्ल्यूजेसी 13772/13, डॉ जितेंद्र कुमार एवं अन्य बनाम कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा एवं अन्य से संबंधित अभिलेखों को लेकर कुलपति डॉ रामचंद्र झा एवं कुलसचिव डॉ सुधीर कुमार चौधरी के बीच जिस तरह तलवारें खिंच गई हैं, उससे साफ जाहिर होता है कि विश्वविद्यालय की कार्य संस्कृति पटरी से उतर गई है. कुलपति का आरोप है कि कुलसचिव ने उपयरुक्त वाद में 29 जुलाई को समर्पित किए गए प्रति शपथपत्र हेतु कुलपति से अनुमोदित तथ्यात्मक विवरण को दरकिनार कर कोर्ट में उससे सर्वथा विपरीत तथ्य प्रस्तुत किए और सर्वोच्च न्यायालय एवं कुलाधिपति के आदेशों के विपरीत कुलपति को मात्र दैनन्दिन कार्यो के संपादन हेतु नियुक्त बताया है.

उन्होंने कोर्ट में कुलपति के किए कार्यो की विवरणी भी पेश की. कुलपति की नजर में कुलसचिव की ओर से कोर्ट में समर्पित की गई इस प्रकार की विवरणी न तो याचिका के उत्तर के लिए वांछित थी और न ही इसके लिए कोई न्यायादेश था. उनका मानना है कि कुलसचिव की ओर से दाखिल किए गए प्रति शपथपत्र में कहीं भी विश्वविद्यालय का पक्ष उपस्थापित नहीं किया गया जो घोर आपत्तिजनक होने के साथ-साथ हाइकोर्ट से तथ्यों को छिपाना भी है. इन आरोपों के मुतल्लिक कुलपति ने 26 अगस्त को कुलसचिव से जवाब-तलब करते हुए पूछा कि क्यों नहीं आपके इस कार्य को नियमों के विपरीत मानते हुए अपेक्षित कार्यवाही की जाए? जवाब देने के लिए कुलसचिव को तीन दिनों का समय दिया गया.

कुलपति के इन आरोपों ने विश्वविद्यालय में खलबली मचा दी. लोगों के बीच संदेश यह गया कि कुलसचिव विश्वविद्यालय के हित को ताक पर रखकर पूरी तरह मनमानी पर उतर आए हैं और इस क्रम में वे सर्वोच्च न्यायालय और कुलाधिपति के आदेशों की भी सरेआम अवहेलना कर रहे हैं. लेकिन कुलसचिव ने 29 अगस्त को कुलपति के कारण पृच्छा का जो जवाब दिया, उससे दूसरी ही तसवीर सामने आ गई. कुलपति अपने स्तर से अनुमोदित जिस तथ्यात्मक विवरण की उपेक्षा का आरोप कुलसचिव पर लगा रहे हैं, कुलसचिव ने उस पूरे विवरण को हाइकोर्ट से मांगी गयी जानकारी के सर्वथा विपरीत बताया है. इन परस्पर विरोधी तथ्यों को देखते हुए प्रबुद्ध जन भी यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि सच्चई कहां है-कुलपति के आरोपों में या कुलसचिव के जवाब में?

लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं होती है. कुलसचिव ने अपने जवाब में इस मामले से संबंधित कई ऐसे तथ्य भी उजागर किए हैं, जिससे स्पष्ट होता है कि विश्वविद्यालय के शीर्ष पदाधिकारियों के बीच पारस्परिक सामंजस्य और विश्वास की आधारभूमि दरक गई है, साथ ही मान्य कार्य संस्कृति को भी तिलांजलि दे दी गयी है. जवाब के मुताबिक हाइकोर्ट में समर्पित करने के लिए प्रति शपथपत्र कुलपति ने बंद कमरे में अनधिकृत लोगों से तैयार कराया. इसमें कुलसचिव को विश्वास में नहीं लिया गया. जबकि विश्वविद्यालय के समस्त अभिलेखों के संरक्षक वही होते हैं. प्रति शपथपत्र तैयार करने में कुलसचिव की उपेक्षा का मामला इसलिए भी गंभीर है कि कोर्ट में विश्वविद्यालय की ओर से वह प्रति शपथपत्र उन्हें ही दाखिल करना था. कार्यालयीय परंपरा के मुताबिक होना तो यह चाहिए था कि प्रति शपथपत्र तैयार कर कुलसचिव उसे अनुमोदन के लिए कुलपति के समक्ष प्रस्तुत करते. लेकिन यहां इसके ठीक विपरीत प्रक्रिया अपनाई गई. प्रति शपथपत्र के लिए कुलपति ने स्वयं ही अनुमोदित कर तथ्यात्मक विवरण कुलसचिव को उपलब्ध कराया और यह विवरण भी जवाब के मुताबिक कुलसचिव को तब हस्तगत कराया गया जब 28 अगस्त की शाम में पटना जाने के लिए गाड़ी में बैठ रहे थे. कुलपति के कहने पर उन्होंने उपलब्ध कराए गए विवरण पर हस्ताक्षर भी कर दिया. कुलसचिव के जवाब में उल्लिखित इन तथ्यों में यदि सच्चाई है तो सीधा सवाल उठता है कि तथ्यों को उनसे छिपाए जाने के पीछे मंशा क्या थी और मकसद क्या था?

जिस तथ्यात्मक विवरण को प्रति शपथपत्र में शामिल नहीं किए जाने को कुलपति ने ‘घोर आपत्तिजनक’ करार दिया. उन तथ्यों को विश्वविद्यालय के अधिवक्ता ने भी हाइकोर्ट से मांगी गई जानकारी के सर्वथा विपरीत बताया. कुलसचिव ने अपने जवाब में इसका भी जिक्र किया है. उन्होंने यह भी लिखा है कि कुलपति द्वारा अनुमोदित प्रति शपथपत्र उच्च न्यायालय द्वारा मांगी गई जानकारी के सर्वथा विपरीत और अनपेक्षित तो था ही, उसमें अनावश्यक रूप से अतिरिक्त बातों की भी चर्चा की गई थी. यह ‘अनावश्यक रूप से अतिरिक्त बातें’ क्या थीं, उसका खुलासा कुलसचिव ने नहीं किया है. लेकिन इस बिंदु पर पुन: वही मूलभूत सवाल खड़ा हो जाता है कि कोर्ट से मांगी गई जानकारी के ‘सर्वथा विपरीत’ तथ्य कुलपति की ओर से दी गयी विवरणी में शामिल थे या उसे दरकिनार कर कुलसचिव की ओर से दाखिल किए गए प्रति शपथ पत्र मे? विश्वविद्यालय के व्यापक हित में इसका खुलासा होना आवश्यक है क्योंकि इसीसे स्पष्ट हो सकेगा कि अपने पदेन दायित्वों के प्रति सही मायने में सजग और साकांक्ष कौन हैं- कुलपति या कुलसचिव?

इस प्रकरण का तीसरा कोण हाइकोर्ट से जुड़ता है. कुलसचिव ने जो प्रति शपथ पत्र समर्पित किया, कोर्ट ने उसे स्वीकार कर लिया. इसका सीधा मतलब यह है कि कोर्ट ने जो जानकारी मांगी थी, वह कुलसचिव के प्रति शपथपत्र में सम्मिलित थी और कोर्ट उस विवरण से संतुष्ट था. एक बात और. हाइकोर्ट की न्यायाधीश मिहिर कुमार झा एकल पीठ ने 26 जुलाई को संस्कृत विश्वविद्यालय के साथ ही वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय के कुलपति को सिर्फ दैनंदिन कार्य निष्पादित करने और किसी भी प्रकार का नीतिगत निर्णय नहीं लेने का आदेश दिया था. कुलसचिव ने भी हाइकोर्ट में यही बात कही. पर कुलपति को यह नागवार लगा और कुलसचिव के इस कृत्य को उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय और कुलाधिपति के आदेशों के विपरीत मान लिया. यदि यही सच्चई है तो यह मामला काफी गंभीर हो जाता है क्योंकि इसका सीधा मतलब हुआ कि हाइकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को भी धत्ता बताते हुए कुलपति के अधिकार सीमित कर दिए. लेकिन सच्चई यही है क्या? इसका उत्तर शैक्षिक क्षेत्र से जुड़े हर व्यक्ति केपास है.

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