अभी भागलपुर सिल्क के नाम पर जो कपड़े बिक रहे हैं, उसमें अमूमन विदेशी धागों का ही उपयोग हो रहा है. इसकी जानकारी सरकारी महकमों को भी है. यही वजह है कि 2012 में 170 करोड़ की लागत से मुख्यमंत्री तसर विकास परियोजना शुरू की गयी. अभी इस क्षेत्र में 38 मिट्रिक टन देसी तसर का सालाना उत्पादन हो रहा है. यह परियोजना सफल रही, तो 2017 से यह बढ़ कर 96 मिट्रिक टन हो जायेगा, जबकि यहां सिल्क के धागे की मांग एक हजार मिट्रिक टन सालाना है. इस अंतर को पाटने के लिए देसी तसर के और दस गुणा ज्यादा उत्पादन की जरूरत होगी. विदेशी धागे बुनकरों के लिए तकनीकी रूप से ज्यादा सुविधाजनक हैं.
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भागलपुरी सिल्क: 500 करोड़ का कारोबार सिमटा 200 करोड़ में
भागलपुर: कोरियाई व चीनी धागों के कारण भागलपुरी सिल्क के कारोबार पर ग्रहण लग गया है. कभी 500 करोड़ रुपये सालाना का कारोबार वाला यह उद्योग अब 200 करोड़ पर आ गया है. इसका मुख्य कारण है सरकारी योजनाओं के कार्यान्वयन में बरती गयी सुस्ती. इसके कारण भागलपुरी सिल्क पीछे रह गया और विदेशी धागों […]
भागलपुर: कोरियाई व चीनी धागों के कारण भागलपुरी सिल्क के कारोबार पर ग्रहण लग गया है. कभी 500 करोड़ रुपये सालाना का कारोबार वाला यह उद्योग अब 200 करोड़ पर आ गया है. इसका मुख्य कारण है सरकारी योजनाओं के कार्यान्वयन में बरती गयी सुस्ती. इसके कारण भागलपुरी सिल्क पीछे रह गया और विदेशी धागों का बाजार तेजी से आगे बढ़ गया.
ढाई दशक के अंतराल को पाटना बड़ी चुनौती. भागलपुरी सिल्क के नाम पर धागा बदलने का 1992 में शुरू हुआ खेल अब यहां के सिल्क उद्योग का हिस्सा बन चुका है. नाथनगर मोमिन टोला में चार हजार लूम हैं. एक भी लूम पर देसी सिल्क की बुनाई नहीं होती है. मोहम्मद ओबेदुल्ला अंसारी बताते हैं, असली भागलपुरी सिल्क का कारोबार कुछ गांवों तक सिमट गया है. 1955 में भारत सरकार ने विदेशों से कृत्रिम सिल्क धागों और वस्त्रों के आयात की छूट दी थी. इसके कारण तसर सिल्क से जुड़े बुनकर कृत्रिम सूत की बुनाई में आ गये. सांसद बनारसी प्रसाद झुनझुनवाला ने लोकसभा में विरोध जताया. इसके बाद दक्षिण भारत में इसका विरोध हुआ. 1960 के आसपास सरकार ने इस पर रोक लगायी. रोक के बाद कृत्रिम सिल्क की तस्करी शुरू हुई.
ऐसे भागलपुर पहुंचे चीन-कोरिया के सिल्क धागे. भागलपुर के संगठित सिल्क तस्करों ने 1980 के आसपास चाइनीज और कोरियन सिल्क को यहां खपाना शुरू किया था. सिल्क कारोबारियों ने तस्करों के सहयोग से विदेशी धागे को बुनकरों तक पहुंचाया. तब तसर के धागे की कीमत करीब सात सौ रुपये किलो थी, जबकि चाइना-कोरिया सिल्क के धागे तीन सौ रुपये किलो मिल रहे थे. बुनकर कल्याण समिति के सदस्य मो अलीम अंसारी बताते हैं कि तब भागलपुर के अकेले चंपानगर में एक दिन में दस ट्रक माल की खपत थी. अब इसका आयात आसान बना दिया गया है.
लक्ष्य से पीछे है तसर विकास परियोजना. मुख्यमंत्री तसर विकास परियोजना तय समय से पीछे है. 2012-13 व 2013-14 में गया, मुंगेर, नवादा, कैमूर, जमुई व बांका जिले में 13530 हेक्टेयर जमीन पर आसन और अजरुन के पेड़ लगाये जाने थे, लेकिन अब तक करीब छह हजार हेक्टेयर जमीन पर ही पौधे लगाये जा सके हैं. इस परियोजना को लेकर किसान उत्साहित नहीं हैं.
सिल्क मिलों का बंद होना भी बड़ी वजह. यहां के सिल्क मिलों का बंद होना भी भागलपुरी सिल्क के लिए बुरा रहा. इधर, बुनकर सेवा केंद्र ने भागलपुरी सिल्क को बचाने या चाइनीज सिल्क को रोकने को लेकर कभी चिंता नहीं की. भारत सरकार के इस केंद्र के उप निदेशक हेमंत कुमार गुप्ता कहते हैं कि चाइनीज धागे से काम करने में बुनकरों को सुविधा हो रही है. हम उनके काम को आसान करने में लगे हैं. दूसरी ओर इस्टर्न बिहार इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के अध्यक्ष मुकुटधारी अग्रवाल कहते हैं कि देसी सिल्क और बुनकरों के लिए दूसरे संगठन काम कर रहे हैं. इसलिए हमने इस पर काम नहीं किया. इस्टर्न बिहार चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष शैलेंद्र कुमार सर्राफ कहते हैं कि हमने कोशिश की, मगर भागलपुरी सिल्क का गुडविल बिगड़ता चला गया.
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