-अजय-
चुनाव देख कर होमगार्ड के लोगों को सरकारी कर्मचारी स्वीकार किया गया,वगैरह-वगैरह. शेषन ने इस शिकायतों को बिंदुवार गृह मंत्रालय के पास भेजा. गृह मंत्रालय ने उन्हें जवाब दिया (पत्रांक वी/11018/24/94-सीएसआर, 27.9.94) कि 1992 के पहले नयी प्रशासनिक इकाइयों के गठन के लिए जिलाधीश/ उपायुक्त और आयुक्त की अनुशंसाएं आती थीं. इस अनुशंसा की छानबीन एक अति उच्च अधिकार प्राप्त कमेटी करती थी. फिर मंत्री परिषद में विचार होता था.
वित्त विभाग अपनी राय देता था. जिलों के गठन में उच्च न्यायालय की राय ली जाती थी. गृह मंत्रालय के पत्र का अंश है, 1993 के बाद नयी इकाइयों के गठन की पहल, मुख्यमंत्री की ओर से राजनेताओं/विधायकों की अनुशंसाओं पर होने लगी. हालांकि नये जिलों के गठन में उच्च न्यायालय से सहमति ली जाती रही, पर अन्य आवश्यक कदम, मसलन जिला प्रशासन की राय,वित्त विभाग की राय, उच्चस्तरीय कमेटी की राय और मंत्रिमंडल की भूमिका का सही निष्पादन नहीं हुआ.
व्यवस्था टूटने का इससे बड़ा दृष्टांत क्या हो सकता है? शासकों के शब्द कानून बन गये हैं. यह पटना तक ही सीमित नहीं है. ब्लॉक स्तर से जिले तक, जो जहां कुरसी पर बैठे हैं, उनमें से अधिसंख्य अपनी मरजी से सत्ता चला रहे हैं. होंगे नियम, कानून और संवैधानिक प्रावधान, पर शासक तो राजा बन गये हैं. शायद राजतंत्र में भी राजा अपने महामंत्री, दरबारियों और चाकरों से परंपराएं पूछ कर ही कोई निर्णय करता था. पर यहां तो विदूषकों-चरणों के बावजूद सब कुछ मरजी से चल रहा है. पर क्या इसके लिए सिर्फ लालू प्रसाद दोषी हैं? नियम-कानूनों की खुली अवहेलना की नींव तो 1980 में कांग्रेस ने डाली.
अगर होमगार्ड के जवानों को लालू प्रसाद सरकारी कर्मचारी का ओहदा देते हैं, तो पच्चीसों हजार शिक्षकों-भवनविहीन कॉलेजों के अपढ़ प्राध्यापकों को सरकारी मान्यता-सुविधाएं किसने दी? आज बिहार में प्राइमरी स्कूल के शिक्षकों की क्या तनख्वाह है, और दूसरे राज्यों के शिक्षकों की क्या तनख्वाह है,यह तुलना कर लीजिए, इससे बिहार के कंगाल होने के अनेक कारणों में से एक कारण स्पष्ट हो जायेगा. यह महज दो उदाहरण है. एक लालू प्रसाद के राजकाज का दूसरा जगन्नाथ मिश्र के शासनकाल का.
दोनों दो दलों के प्रतीक हैं. स्पष्ट है कि जिस दल के हाथ में सत्ता आयी, उसने ही उसके ढांचे को ध्वस्त करने का काम किया. लालू प्रसाद के कार्य इसलिए दिखाई दे रहे हैं कि व्यवस्था के बचे-खुचे ढांचे को उन्होंने जमींदोज कर दिया है. पर कांग्रेस तो इस व्यवस्था की नींव ही खोखला कर गयी है. अनेक उदाहरण हैं, जो साबित करते हैं कि बिहार में व्यवस्था और उसे चलाने वाली संस्थाएं बिल्कुल तहस-नहस हो चुकी हैं. जो इस क्षत-विक्षत व्यवस्था का कायाकल्प करना चाहते हैं, उन्हें शेषन के दस्तावेज से व्यवस्था की बीमारी के लक्षण मालूम हो सकते हैं. पर इसमें बदलाव जैसा बड़ा काम दशकों में नहीं होता,तो सप्ताह भर में कैसे होगा? यह काम आज के राजनीतिक दलों से भी नहीं होने वाला क्योंकि यह तो उन्हीं की देन है. दारोगा भरती या शिक्षकों की नियुक्ति के मामले भी गंभीर है. बगैर पुलिस जांच या शारीरिक-स्वास्थ्य प्रमाण पत्र के नियुक्तियां हुई. हाइकोर्ट ने कुछ लोगों के लिए पुन: शारीरिक जांच का आदेश दिया है पर यह सब वैसे ही है, जैसे रातोंरात भवनविहीन कॉलेजों के अयोग्य अध्यापक सरकारी हो गये. यह एक प्रक्रिया का स्वाभाविक परिणाम है. रिवाज यह हो गया है कि चयन के लिए तय कानून प्रक्रिया और अनिवार्य मापदंडों का खुला उल्लंघन खुद व्यवस्था पक्ष से हो. यह कौन और क्यों करते है? जिनकी लोकतंत्र में, सबको समान हक देने-दिलाने और व्यवस्था को जिंदा रखने में रुचि नहीं हैं, वे ऐसे कामों से वोट बैंक तैयार करते हैं.
समाज समूहों का संचय है. सारे समूहों ने मिल कर साथ जीने-चलने के लिए कुछ सार्वजनिक नियम-कानून-मापदंड तय किये हैं. अगर उन सर्वस्वीकृत कानूनों को शासक ही तोड़ने लगें, तो समझीए समाज या राज्य के खंड-खंड होने की बुनियाद पड़ गयी है और बिहार में पिछले 20 वर्षों से तो यही प्रतियोगिता चल रही है कि कौन इस व्यवस्था का कितना चीरहरण कर सकता है? आरक्षण का ही मामला लें. सरकार सबका प्रतिनिधित्व करती है.
अगर बिहार की लालू प्रसाद सरकार ने तय किया कि दारोगाओं की भरती या शिक्षकों की भरती आरक्षण के नियमों के तहत होनी चाहिए, तो इससे कोई नाराज क्यों हो? इससे जो लोग नाराज हैं,वे गलत हैं पर यह सवाल कि नियुक्तियां बिल्कुल पारदर्शी (ट्रांसपरेंट) तरीके से क्यों नहीं हुई? बिल्कुल वाजिब है? जब शंका का माहौल हो,तो राजा को अपना निजी जीवन सार्वजनिक कर देना चाहिए. उसे अग्नि परीक्षा से गुजरना चाहिए, ताकि नागरिकों के मन में कहीं आशंका के बुलबुले न फूटें. पर हुआ क्या? डीएन गौतम जैसे बेदाग, ईमानदार अधिकारी परेशान किये गये?
याद रखिए! इस डीएन गौतम के साथ कांग्रेसी सरकार ने तीन-चार बार वही सलूक किया था, जो जनता दल की सरकार ने किया. केबी सक्सेना को बार-बार कांग्रेस की सरकार ने इधर-उधर किया, तो 1977 की जनता पार्टी ने भी उन्हें उसी तरह हटाया-बढ़ाया. अंतत: 1990 की जनता दल सरकार भी उन्हें पचा नहीं सकी. केबी सक्सेना या डीएन गौतम, प्रतीक हैं, बेहतर, प्रतिबद्ध, निष्पक्ष और ईमानदार नौकरशाही के.
पिछले 15 वर्षों में यह ईमानदार नौकरशाही लगातार बिहार में घुटती और दम तोड़ती रही है. अब हालात ऐसे हो गये हैं कि जी हुजूरी करने वाले चारण भक्त और दरबारी नौकरशाह ही आबाद हो रहे हैं. पर इसके लिए दोषी खासतौर से 1980 के बाद के सारे शासक हैं. क्या यह पाप एक सप्ताह में धुल जायेगा? निश्चित रूप से नहीं, शेषन का मसविदा, पाताल में लुढ़क रही बिहार रूपी ब्रेकहीन बस में लगी ओट है, जो जल्द ही हट जायेगी.
उसके बाद क्या नयी सरकार,इस बस को लुढ़कने से बचा पायेगी? बिल्कुल नहीं, क्योंकि तेजी से बदलती इस दुनिया में बिहार कहां खड़ा है,यह शायद ही बिहार के राजनेता जानते हैं. नौकरशाही की क्या स्थिति है? 1991 में संयुक्त सचिव स्तर के आठ आइएएस अफसर और उप सचिव स्तर के केवल पांच अफसरों ने केंद्र में जाने के लिए आवेदन किया था. इस वर्ष 33 में से 17 संयुक्त सचिवों और 37 में से करीब 17 उप सचिवों ने बिहार से बाहर जाने के लिए आवेदन किया है. अफसर क्यों भाग रहे हैं? सचिवालय में कमिश्नर पीटे जाते हैं. गोपालगंज के जिलाधिकारी जी कृष्णैया की हत्या होती है, फिर भी कुछ नहीं होता.
दूसरी ओर लुटेरे अफसर हैं. जो खुलेआम 20 वर्षों में बिहार को लूट चुके हैं. लूट रहे हैं. कोयला माफिया, भूमि माफिया, शिक्षा माफिया,पशुपालन माफिया, बस माफिया… माफिया गुट के विभिन्न गिरोहों की समानांतर ताकत, पटना या दिल्ली में बैठी सरकारों से ज्यादा ताकतवर है. यह बार-बार सिद्ध हुआ है. जो लोग सत्ता में बैठते हैं,वे जाने-अनजाने इन माफिया गुटों के संरक्षक भी बन जाते हैं. कुछ पात्र भले ही इधर-उधर हो जाते हैं, पर यही व्यवस्था लगातार राक्षसी रूप ग्रहण करती जा रही है.
यह व्यवस्था बदलने के लिए नयी राजनीतिक ताकत चाहिए, जो बिहार के क्षितिज पर दूर-दूर तक कहीं दिखाई नहीं देती. एक इच्छाविहीन समाज-राज्य आसानी से सम्मोहन का शिकार हो जाता है. इस कारण इस गरीब राज्य के नेताओं के बीच होड़ चल रही है कि कौन हेलिकॉप्टर से प्रचार का धन कहां से ला रहे हैं? जिन्हें पांच वर्ष भी राजनीति में आये नहीं हुए, वे रोजाना 6-8 लाख प्रचार में खर्च करते हैं?
शेषन का वहां नियंत्रण नहीं है, इसलिए छूट है. सोचिए कि एक अकेले शेषन न होते,तो दिन-रात कर्ण कष्ट देने वाले, दीवार पोतने वाले,भाड़े पर भीड़ जुटाने वाले या जुलूस निकालने वाले,जबरन चंदा वसूलने वाले ये राजनीतिज्ञ,क्या चुप रहते? मतदाताओं को इन प्रत्याशियों के दर्शन का मौका मिलता? इनसे सवाल पूछने का अवसर मिलता कि आपने मेरे लिए क्या किया? अगर शेषन का रौब न रहता, तो क्या आपको ये राजनीतिज्ञ और इनकी फौज निर्द्वद्व होकर वोट डालने देती?