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सृजनशील ध्वंस ही राह है

-हरिवंश- दिल्ली : दो दिनों पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह, माधवराव सिंधिया और कमलनाथ भोपाल गये. एक ही दिन, पर अलग-अलग निजी विमान से. मकसद, दलगत काम था. पर यह सब भुगतान सरकारी या सार्वजनिक कोष से होगा. पर्यावरण मंत्रालय को संयुक्त राष्ट्र संघ से जंगलों में आग बुझाने के लिए एक विमान मिला है, […]

-हरिवंश-

दिल्ली : दो दिनों पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह, माधवराव सिंधिया और कमलनाथ भोपाल गये. एक ही दिन, पर अलग-अलग निजी विमान से. मकसद, दलगत काम था. पर यह सब भुगतान सरकारी या सार्वजनिक कोष से होगा. पर्यावरण मंत्रालय को संयुक्त राष्ट्र संघ से जंगलों में आग बुझाने के लिए एक विमान मिला है, पर इस विमान का इस्तेमाल मंत्री-अफसर तफरीह के लिए करते हैं. यह सवाल तो आप नहीं ही पूछेंगे कि कांग्रेस के इन तीनों मंत्रियों को जब एक ही दिन, एक ही जगह, एक जैसे काम के लिए जाना था, तो अलग-अलग क्यों गये?
विभिन्न : जांच एजेंसियों ने आधिकारिक तौर पर पुष्टि कर दी है कि शेयर घोटाले की रकम 5400 करोड़ रुपये से अधिक है. एक अपुष्ट अनुमान के अनुसार यह घोटाला लगभग 22-23 हजार करोड़ रुपये के बीच का है. अगर घोटाले की राशि 54 करोड़ ही मानें, तो यह दुनिया का सबसे बड़ा घोटाला है.
7 जनवरी को कलकत्ता के राइटर्स बिल्डिंग में केंद्रीय मंत्री सुश्री ममता बनर्जी, ज्योति बसु के कार्यालय के सामने (उस समय ज्योति बाबू अंदर मौजूद थे) पुलिसवालों से फरियाद कर रही थीं कि ‘कृपया मुझे मत मारो. मेरे बदन का ऐसे स्पर्श मत करो… मैं सांसद हूं.’ पर उन्हें बख्शा नहीं गया. अपराध एक बहरी और गूंगी लड़की के साथ हुए बलात्कार के संदर्भ में वह मुख्यमंत्री से फरियाद करने गयी थीं.
पलामू – गढ़रा में लोग भूख से मर रहे हैं. युवा घर-गांव छोड़ चुकें हैं. बूढ़े-अशक्त और अनबोले बच्चों की दुनिया उजड़ गयी है. राहत के नाम पर बहुत शोर-शराबा हुआ, पर छोटानागपुर राहत समिति (खासतौर से कर्नल बख्शी और डाक्टर सिद्धार्थ मुखर्जी जैसे लोग) और गढ़वा के उपायुक्त संतोष कुमार सतपथी को छोड़ कर कोई बेचैन नहीं है.
पूरी दुनिया (चीन को छोड़ कर) भयावह आर्थिक संकट के कगार पर है. फ्रांस में लगभग छह लाख मजदूरों की छंटनी का काम आरंभ हो गया है. ब्रिटेन में कोयला मजदूरों और डाक तार विभागों में पौने दो लाख लोगों के हटाने की तैयारी है. भारत पर इससे गहरा असर पड़नेवाला है. सरकारों ने लोगों की छंटनी, वेतन रोकने, महंगाई भत्ते और भविष्यनिधि रोकने की चर्चा और कार्रवाई आरंभ कर दी है. बाजार की स्थिति बदहाल है.

नौकरियां खत्म हो रही हैं.उद्योग उजड़ रहे हैं. निजी क्षेत्रों की हालत नाजुक है.

रांची में अपराधियों द्वारा अपहृत युवक अनित कुमार दास को पुलिस नहीं ढूंढ़ सकी. अपराधियों द्वारा मुक्त होने पर ही वह घर पहुंच पाये. धुर्वा में भी दो अपहरण हुए. पुलिस बात छिपा रही थी, तो मां-बाप रो रहे थे कि अपराधियों ने धमकी दी है कि पुलिस को इतिला करने पर अपहृत को मार डालेंगे. इधर शहर की यह हालत है और 7 जनवरी को शहर के सभी बड़े अफसरान पूरे दिन क्रिकेट मैच का आनंद ले रहे थे.
31 दिसंबर को अपहृत और 8 जनवरी को अपने घर लौटे अमित कुमार दास के पिता वन विभाग में मुलाजिम हैं. विश्वस्त सूत्रों के अनुसार उनके पास काफी संपत्ति है और उनके जैसे अनेक दिग्गज रांची में हैं. ऐसे सभी सरकारी अफसरों और राजनेताओं की आय में जो गुणात्मक वृद्धि हो रही है, उससे शायद ही आप अनजान हों.
ये सभी घटनाएं (और इस दौरान घटी ऐसी अनगिनत दूसरी घटनाएं) इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि राजसत्ता का अस्तित्व पूरी तरह खत्म हो चुका है. इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के तहत कार्यरत संस्थाओं के प्रति आस्था-विश्वास और मर्यादा नहीं बची है. पूरी व्यवस्था अपनी प्रासंगिकता खो चुकी है. इस मृत और शव में बदल चुकी व्यवस्था से अब कोई नयी राह नहीं निकलनेवाली.
लेकिन क्या इस समाज में यह शौर्य-ऊर्जा शेष है कि वह उठ खड़ी हो और गांधीवादी सविनय अवज्ञा के तहत संकल्प करे कि जो व्यवस्था सुरक्षा मुहैया नहीं करा सकती, न्याय नहीं दे सकती, उसे हम प्रत्यक्ष या परोक्ष कर नहीं देंगे. इसकी मान्यता नहीं स्वीकारेंगे. 74 के आंदोलन में भी जेपी ने यह हुंकार भरी थी. क्या आज की युवा पीढ़ी के रक्त में कुछ शेष है? विवेकानंद, गांधी, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, और सुभाष चंद्र बोस के देश में क्या निजी महत्वाकांक्षा की तिलांजलि देकर खड़ा होनेवाला कोई बचा?
अगर कोई नहीं उठ खड़ा होगा, तब भी इस कुव्यवस्था के विकल्प में अराजकता को चुन लेना चाहिए. 29 दिसंबर 1849 को जब अराजकतावाद के जनक पियरे-जोसेफ प्राउधों (1809-65) से पूछा गया कि आप अराजकता की स्थिति में राज्य की जगह क्या खड़ा करेंगे? उन्होंने जवाब दिया, ‘कुछ भी नहीं. समाज सतत गतिशील है. इसके अपने स्रोत हैं. अपना संतुलन चक्र है.’ जिस समाज में न्याय नहीं, अपनी जबान और जमीन नहीं, सम्मान नहीं, उस शव को क्यों ढोना?

इस समूची व्यवस्था पर संपूर्ण संकल्प, शक्ति और युक्ति के साथ करारा प्रहार, वक्त की बुनियादी जरूरत है. नये निर्माण और परिवर्तन की पूर्व आवश्यकता है, सृजनशील ध्वंस. बीसवीं सदी के साठ-सत्तर की दहाई में पूरी दुनिया में कुव्यवस्था के खिलाफ आवाज उठी. सात्र, माओ, लोहिया, चेम्वेरा, गिंसबर्ग, मार्क्यूस, फ्रैंज फैनन, बेंदित समय-समय पर इसके बदलते नेता रहे. कुराज और सुराज के बीच चुनाव की प्रक्रिया चलती रही. पर आज चुनना है कुराज और अराजकता के बीच. उपभोक्तावाद और देसी मूल्यों के बीच. पश्चिमी दुनिया के बाहर गांधी और माओत्से तुंग ने पश्चिमवाद को चुनौती दी. पर गांधी के देश में प्रेरणा-आकर्षण पश्चिम का है.पर इस भौतिकता के बीच भी गांधी के देश से ही एक नयी आग उठ रही है. संपूर्ण नकार की. इस आग को हवा दी है आंध्र की अपढ़ महिलाओं ने.

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