-हरिवंश-
पिछले 10 दिनों से राज्य में निजी वाहन मालिकों और सरकार के सौजन्य से आपकी, हमारी जिंदा रहने और रोटी कमाने की आजादी पर प्रहार हो रहा है. इस बढ़ती महंगाई में खाने की चीजों के भाव लगातार बढ़ते जा रहे हैं, पर कहीं किसी स्तर पर चिंता या बेचैनी नहीं है. इस हड़ताल के कारण तीन लाख छात्रों (इंटर के परीक्षार्थी) का भविष्य अधर में है. अब उनकी परीक्षाएं देर से होंगी, तो परीक्षाफल देर से आयेगा, फिर बाहर या बेहतर संस्थानों में इनका नामांकन कौन करायेगा?
सरकार, प्रशासन, राजनेता या निजी वाहन मालिक? कोई भी समाज वर्तमान की पीड़ा को झेलता है, भुगतता है, अतीत को सजाने-संवारने के लिए, कष्ट सहता है, भूखों रहता है, तरह-तरह की कठिनाइयां उठाता है कि बच्चों का भविष्य संवार कर अपना भविष्य निखार सके. पर हासिल क्या हो रहा है, एक बजबजाता, दुर्गंधित मौजूदा माहौल (वर्तमान) और दुख संताप की आशंकाओं से परिपूरित भविष्य. आप पग-पग पर लड़ रहे हैं, भूख से, बीमारी से, यातायात से, महंगाई से और आपकी संतान (भविष्य) तैयार हो रही है एक निरंतर विकृत होती व्यवस्था में घुट-घुट कर जीने के लिए.
आपको किसी स्वजन-संबंधी की शादी-मृत्यु या समारोह में जाना है, तो आप जा पायेंगे या नहीं, यह भी आप नहीं जानते. सरकारी बसों-भीड़ भरी ट्रेनों में ऊपर से नीचे तक लदे लोगों के बीच कराहते बच्चों-बेचैन महिलाओं और असहाय वृद्धों को देख आइए, जो समाज अबलाओं, वृद्धाओं और निरीह बच्चों के प्रति पशुवत-जड़ या तटस्थ हो जाये, उसे आप क्या कहेंगे? क्या प्रशासन या निजी बस या ट्रक मालिक ऐसे लोगों की पीड़ा महसूस करते हैं या 11 करोड़ बिहारवासी इन लोगों की दृष्टि में महज चलती-फिरती लाश है या तिजारत के पदार्थ? दवाएं नहीं मिल रही हैं, गैस अनुपलब्ध है, आवश्यक सामान बाजार तक नहीं पहुंच रहे. उद्योग-धंधे बंद हो रहे हैं. लाखों मजदूर बेकार हो रहे हैं. उनकी रोजी-रोटी छीन रही है. मरीजों की ‘हत्या’ (चिकित्सा के अभाव में मृत्यु) हो ही है. गांव के मरीज यातायात के अभाव में शहर नहीं पहुंच पा रहे.
फिर भी किसी राजनीतिक दल ने इसे मुद्दा नहीं बनाया. स्पष्ट है कि कमोबेश सभी राजनीतिक दलों का चरित्र समान है. उनमें समान संवेदनहीनता, क्रूरता और जन विरोधी सोच है. लेकिन यह लुंज-पुंज, ढीला-ढाला, संकल्पविहीन, सत्तालोलुप, विचारधाराविहीन राजनीतिक ताकतें ऊपर से नहीं टपक पड़ी है. यह आपके और हमारे अकर्म और संकल्पहीनता का परिणाम है. अकर्म करनेवाले दुनिया-समाज की शक्ल नहीं बदला करते. वे विधवा विलाप करने के लिए ही अभिशप्त हैं.
फिर इन व्यवस्थाजनित परेशानियों-विपत्तियों के प्रति असहाय, दीन-हीन याचक बन कर हम हासिल क्या करना चाहते हैं? किसी बंगाल, किसी ओड़िशा, किसी उत्तर प्रदेश, किसी मध्यप्रदेश (जो आपके पड़ोसी हैं) में आम लोगों की ऐसी दुर्दशा आपने सुनी या देखी है?
लेकिन जो आपके रहनुमा हैं (चाहे वे किसी भी दल के हों, सरकार में या सरकार के बाहर) वे और उनके स्वजने आप से वसूले गये कर की बदौलत विशेष वाहनों, हवाई जहाज आदि से घूम-फिर रहे हैं. आप भले ही अंधेरे में घुट-घुट कर मरें, पर वे सार्वजनिक कोष की बदौलत जेनरेटर की रोशनी में रहते हैं. सार्वजनिक कोष के सौजन्य से राज्य या राज्य के बाहर इलाज कराते हैं. यह सारा तामझाम-ढोंग लोकतांत्रिक राजनीकि-जन कल्याण के झंडे तले हो रहा है.
बिहार के ही ‘गौरव’ (अतीत के उस दुर्लभ दिवंगत गौरव को प्रणाम) रामधारी सिंह दिनकर ने कभी इस जनजीवन में उत्तर में रहे इस अंधकार को देख कर लिखा था, ‘ज्योतिर्मय मनुष्य! तू अपने को भूल रहा है. तुझ में वृद्ध का तेज है, जिसने स्वर्ग और पृथ्वी दोनों के लिए प्रकाश का निर्माण किया था. तुझ में राणा प्रताप का प्रताप है, जिसने वन-वन मारे-मारे फिर कर भी अपने आदर्श के प्रदीप को बुझने नहीं दिया. तुझ में मंसूर की जिद है, जिसके मर जाने पर भी उसके मांस की बोटी-बोटी ‘अनलहक’ पुकारती थी.
आज घना अंधकार तेरे पौरुष को चुनौती दे रहा है. नींद से जाग! आलस्य को झाड़ कर उठ खड़ा हो! सूरज और चांद के प्रकाश में चलने वाले बहुत हो चुके हैं. इतिहास उनकी गिनती नहीं करता, आज तुझे अपने भीतर के तेज को प्रत्यक्ष करना है. तेरे लहू में तेल, शिरा में वर्तिका और हड्डी में चिराग है. मिट्टी के दीये शाम को जलते और सुबह से पहले ही बुझ जाते हैं. अपनी हड्डी से उस चिराग को जला, जिसकी लौ सदियों तक जलती रहती है.