धरोहरों को आजीविका से जोड़ें

इस वर्ष की थीम ‘हेरिटेज एंड क्लाइमेट’ (धरोहर एवं जलवायु) है. हम सभी जलवायु परिवर्तन की बढ़ती चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. ऐसे में प्राकृतिक धरोहरों का महत्व बहुत बढ़ जाता है.

By स्वप्ना लिड्डल | April 18, 2022 9:26 AM

विश्व धरोहर दिवस 1982 से हर साल 18 अप्रैल को मनाया जाता है, जिसे इंटरनेशनल डे फॉर मॉनुमेंट्स एंड साइट्स कहा जाता है. यह नाम यूनेस्को के साथ मिल कर काम करनेवाली संस्था इंटरनेशनल काउंसिल ऑन मॉनुमेंट्स एंड साइट्स (इकोमॉस) का दिया हुआ है. इसका मुख्य उद्देश्य अपनी सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहरों तथा उनके संरक्षण के बारे में जागरूकता पैदा करना है. हर साल यह संस्था कोई विशेष थीम निर्धारित करती है, जिसकी तात्कालिक प्रासंगिकता भी होती है.

इस वर्ष की थीम ‘हेरिटेज एंड क्लाइमेट’ (धरोहर एवं जलवायु) है. हम सभी जलवायु परिवर्तन की बढ़ती चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. ऐसे में प्राकृतिक धरोहरों का महत्व बहुत बढ़ जाता है. प्राकृतिक धरोहरों में तालाब, झील जैसे विभिन्न जल निकाय, वन क्षेत्र, भूगर्भीय व भू-आकृतिक संरचनाएं आदि आते हैं. इनमें विलुप्त होते जीव-जंतुओं तथा पेड़-पौधों के क्षेत्र शामिल हैं. इनके अलावा प्राकृतिक धरोहरों में विज्ञान, संरक्षण और प्राकृतिक सुंदरता की दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्र भी शामिल हैं.

हमारे देश में यूनेस्को द्वारा मान्य 40 विश्व धरोहर स्थल हैं, जिनमें 31 सांस्कृतिक तथा सात प्राकृतिक धरोहरों के साथ दोनों श्रेणियों का एक मिश्रित स्थल शामिल हैं. इस अवसर पर पूरे विश्व में आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों, लेखन, संवाद आदि के माध्यम से जलवायु की बेहतरी और धरती के भविष्य के लिए प्राकृतिक धरोहरों के महत्व पर बल दिया जा रहा है. हम अपने विकास के क्रम में पुरानी इमारतों और प्राकृतिक संरचनाओं को तोड़-तोड़ कर नयी चीजें बनाते जाते हैं, इससे हम अपनी धरोहर को तो नष्ट करते ही हैं, हमारी सततता भी समाप्त होती जाती है.

ऐसा करने से हम ऊर्जा खर्च करते हैं, ढेर सारा कचरा पैदा करते हैं, जिनसे जीवन एवं जलवायु निश्चित ही प्रभावित होते हैं. इसलिए धरोहरों को तोड़ने के स्थान पर उन्हें फिर से उपयोगी बनाने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए. यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि विश्व धरोहर दिवस केवल उन धरोहर स्थलों के लिए नहीं हैं, जिन्हें यूनेस्को की सूची में शामिल किया गया है, बल्कि यह विशेष दिन समूची दुनिया की धरोहरों को समर्पित है.

इकोमॉस विश्व धरोहर स्थलों के अलावा अनगिनत धरोहरों के संरक्षण एवं संवर्धन से जुड़ा हुआ है. धरोहरों के संदर्भ में हमारी सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हम विकास को एक ओर तथा धरोहरों को दूसरी ओर रखते हैं तथा इन दोनों को हम परस्पर विरोधी मानते हैं. इसका मतलब यह हुआ कि अगर हम धरोहर को बचाते हैं, तो फिर हमारा विकास बाधित हो जायेगा और अगर विकास हो रहा है, तो वह धरोहर को साथ लेकर नहीं चल सकता है, इस गलत धारणा से हमें निकलना होगा.

अगर हम अनेक देशों के अनुभव देखें, तो उन्होंने बहुत प्रगति की है और उनके धरोहर भी सुरक्षित हैं. इसमें यह भी है कि उन्होंने धरोहर का लाभ उठाते हुए अपना विकास किया है. उनसे हमें सीख लेनी चाहिए. हमें यह देखने की आवश्यकता है कि धरोहरों के माध्यम से किस तरह लोगों के जीवन को बेहतर बनाया जा सकता है, जैसे- रोजगार के अवसर पैदा करना है, तो इसमें धरोहर कैसे मददगार हो सकते हैं.

मुझे लगता है कि हमने ग्रामीण क्षेत्र के धरोहरों को समझने-जानने का प्रयास नहीं किया है. उन्हें हम पर्यटन के साथ संबद्ध कर सकते हैं. हम देश के कुछ ही स्थानों को पर्यटन के नाम पर प्रचारित करते हैं, जबकि हमारे देश में धरोहरों की कोई कमी नहीं है. धरोहरों को लेकर विवाद भी दुर्भाग्यपूर्ण है.

आज यह सब हमारी अमानत और विरासत हैं. इतिहास अपनी जगह पर है और धरोहर अपनी जगह पर. धरोहर का संबंध इतिहास से तो है, पर इतिहास अतीत है और धरोहर हमारे पास आज भी हैं. आज यह देखना अधिक आवश्यक है कि हम उनकी देखभाल कैसे कर रहे हैं और उनकी क्षमताओं को कैसे उपयोग में ला रहे हैं. धरोहरों से हम लोगों के जीवन को बेहतर बना सकते हैं.

संरक्षण के मामले में हम जिस पहलू में आगे रहे हैं, वह है नियम-कानून बनाना, लेकिन यह भी देखा जाना चाहिए कि वे नियम-कानून काम कर रहे हैं या नहीं तथा वे लोगों को स्वीकार्य हैं या नहीं? यदि लोगों को ऐसी पहलों की समझ नहीं होगी या वे उसे मानेंगे नहीं, तो उन्हें ठीक से लागू कर पाना संभव नहीं हो सकेगा. यह कमी केवल धरोहरों के मामले में ही नहीं, हर क्षेत्र में है.

धरोहरों को लेकर एक संपूर्ण दृष्टि का विकास करना जरूरी है. कई बार बिना समुचित अध्ययन के ही नियम बना दिये जाते हैं. संरक्षण में समुदायों की बहुत बड़ी भूमिका होती है और सरकार व उसकी एजेंसियों को उन्हें साथ लेना चाहिए. मेरा आकलन है कि बीते दो दशकों में लोगों में धरोहरों को लेकर जागरूकता बढ़ी है और कई समुदाय उनके संरक्षण के लिए आगे आये हैं.

इसमें मीडिया का बड़ा योगदान रहा है. इस अवधि में धरोहरों को एक मुख्य विषय बना कर मीडिया द्वारा पेश किया जा रहा है. जब हम इतिहास के छात्र होते थे, तब हमारे शब्दकोश में धरोहर जैसी कोई चीज नहीं होती थी. इस मामले में युवाओं को आगे आना होगा, क्योंकि भविष्य उनका है. यह संतोषजनक है कि वे लगातार जागरूक हो रहे हैं. उन्हें कुछ मार्गदर्शन देने तथा धरोहर को आजीविका के साथ जोड़ने पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए. (बातचीत पर आधारित).

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