एक बार फिर होली का त्योहार आ गया है. कोरोना के कारण होली के आयोजनों में व्यवधान आ गया था और देशभर में होली मिलन के कार्यक्रम रद्द कर दिये गये थे, लेकिन इस साल होली की रंगत जोरों पर है. अपने देश में होली को एक परंपरा के रूप में देखा जाता है. इसका सांस्कृतिक महत्व भी है. होली रंगों का और खुशियों का त्योहार है. इस अवसर पर पूरा माहौल मस्ती से झूम उठता है. हमारे सारे त्योहार किसी न किसी मौसम से जुड़े हुए हैं.
रंगों का यह त्योहार वसंत का संदेशवाहक भी है. भागदौड़ से भरी जिंदगी में यह त्योहार एक सुकून प्रदान करता है. यह अकेला ऐसा त्योहार है, जो समतामूलक समाज की परिकल्पना को भी साकार करता है. इस त्योहार में जाति, धर्म, अमीर-गरीब की कोई खाई नहीं होती. सब इस त्योहार को मनाते हैं, एक-दूसरे पर अबीर-गुलाल डालते हैं.
संगीत और मस्ती इसके मुख्य तत्व हैं. इस दौरान गाने-बजाने की लंबी परंपरा रही है. बिहार-झारखंड में फगवा गाने की परंपरा है. लोकगीतों में हमारे अलग- अलग आराध्या और प्रांतों की माटी की सौंधी खुशबू इन गीतों से आती है. ब्रज में राधा कृष्ण और गोपियां इसके केंद्र में रहते हैं और ‘आज बिरज में होरी रे रसिया’ खूब गाया जाता है. राम और सीता की होली का एक अलग रंग- ‘होली खेलें रघुवीरा अवध में’ नजर आता है.
बाबा भोलेनाथ के भक्त- ‘खेलैं मसाने में होरी, दिगंबर खेले मसाने में होरी’ का गायन करते नजर आते हैं. अमीर खुसरो- ‘आज रंग है री मन रंग है, अपने महबूब के घर रंग है री’ जैसी आध्यात्मिक होली का रंग पेश करते हैं. एक दौर था, जब कोई भी फिल्म बिना होली के गीत के पूरी नहीं होती थी. आज भी होली में फिल्म सिलसिला का यह गीत- ‘रंग बरसे भीगे चुनर वाली, रंग बरसे’ न बजे, ऐसा हो नहीं सकता है.
शास्त्रीय और लोकगीत परंपराओं में भी होली का विशेष महत्व है. शास्त्रीय संगीत में ध्रुपद, धमार और उपशास्त्रीय संगीत में चैती, दादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होलियां हैं. ‘रंगी सारी गुलाबी चुनरिया रे’, ‘होरी खेलत नंदलाल’, ‘आज बिरज में होली रे रसिया’, ‘उड़त अबीर गुलाल जैसी बंदिशें’ अत्यंत लोकप्रिय हैं. शास्त्रीय संगीत में बसंत, बहार व हिंडोल ऐसे कुछ राग हैं, जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाये जाते हैं.
भारत में होली का उत्सव अलग-अलग प्रदेशों में अलग तरह से मनाया जाता है. नंदगांव व बरसाने की लट्ठमार होली खासी प्रसिद्ध है. इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएं उन्हें लाठियों से प्रतीकात्मक रूप से पीटती हैं. ब्रज में तो होली का उत्सव 15 दिनों तक चलता है. महाराष्ट्र में रंग पंचमी की परंपरा है, तो पंजाब में होला मोहल्ला में शक्ति प्रदर्शन किया जाता है. उत्तराखंड में भी होली गायन की परंपरा काफी पुरानी है.
बिहार और झारखंड में फगवा गाने की परंपरा है. रंग व गुलाल के साथ गुझिया की मिठास इस त्योहार को और मजेदार बना देती है. भारत के अधिकांश त्योहार नयी फसल से जुड़े हुए हैं. होली के अवसर पर भी होलिका में गेहूं की बाली और चने के होला को अर्पित किया जाता है. प्राचीन समय से ही खेत के अधपके अन्न को होली में अर्पित करने का विधान है.
ऐसा भी कहा जाता है कि चूंकि अधपके अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा. होली को लेकर कई अन्य कथाएं भी प्रचलित हैं. कहा जाता है कि पहली होली भगवान कृष्ण ने राधा और गोपियों के साथ खेली थी. यही वजह है कि ब्रज में होली भारी धूमधाम से मनायी जाती है.
होलिका और प्रह्लाद की कथा होली की सबसे महत्वपूर्ण कथाओं में से एक है. कहा जाता है कि एक समय हिरण्यकश्यप नामक राक्षस का राज था. वह क्रूर शासक सबसे अपनी पूजा करवाना चाहता था, लेकिन उसके बेटे प्रह्लाद ने उसकी पूजा करने से इनकार कर दिया. प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त था. हिरण्यकश्यप ने कई बार प्रह्लाद को मरवाने की कोशिश की, लेकिन भगवान विष्णु की कृपा से प्रह्लाद हर बार बच जाता था. फिर हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका की सहायता मांगी.
होलिका को यह वरदान था कि अग्नि उसे कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकती है. होलिका प्रह्लाद को लेकर आग में बैठ गयी. होलिका यह भूल गयी कि आग तब तक उसे नुकसान नहीं पहुंचा सकती है, जब तक वह आग में अकेली जाती है. होलिका जल गयी और प्रह्लाद विष्णु के आशीर्वाद से सकुशल आग से बाहर आ गया. इसलिए होली को भगवान विष्णु के प्रति आस्था व्यक्त करने के रूप में भी देखा जाता है.
यह त्योहार सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल भी है. होली से नजीर अकबराबादी जैसे शायर भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहे. उन्होंने अनेक होलियां लिखी हैं. आगरा और उसके आसपास आज भी ये होलियां गायी जाती हैं. उनमें यह सबसे लोकप्रिय है- जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की/ और दफ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की/ परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की. नजीर का उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि उन्हें सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल माना जाता है.
उन्होंने लगभग सभी हिंदू त्योहारों पर अपनी कलम चलायी है. वे लिखते हैं- नंदगांव में जब यह ठाठ हुए, बरसाने में भी धूम मची/ श्री किशन चले होली खेलन को ले अपने ग्वाल और बाल सभी/ आ पहुंचे वट के बिरछन में हर आन खुशी चमकी झमकी/ वां आई राधा गोरी भी ले संग सहेली सब अपनी.
लेकिन भागदौड़ भरी जिंदगी ने हमारे त्योहारों और परंपराओं में परिवर्तन ला दिया है. उनके सांस्कृतिक स्वरूप के समक्ष संकट खड़ा हो गया है. होली के दौरान सर्दी के समापन के प्रतीक के रूप में लकड़ियां एकत्र कर होलिका जलाने की परंपरा रही है, पर अब होलिका के लिए हरे-भरे पेड़ों को काटा जाने लगा है. भांग ठंडाई की जगह शराब ने और प्राकृतिक रंगों का स्थान केमिकल रंगों ने ले लिया है. पहले चंदन, गुलाब जल, टेसू के फूलों से बने प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा थी.
यह त्योहार आपसी भाईचारे और पुरानी अदावत को समाप्त करने का है, लेकिन कुछ लोग इसकी आड़ में पुरानी रंजिश का हिसाब चुकाने लगे हैं. हमारा मानना है कि होली का पारंपरिक और सांस्कृतिक स्वरूप हर हालत में बचा रहना चाहिए. साथ ही, प्रकृति के प्रति हमारी चेतना बनी रहनी चाहिए. बुरा न मानो होली के साथ आप सभी को होली की शुभकामनाएं.