मॉनसून की वापसी

प्राकृतिक आपदाओं की बारंबारता बढ़ने तथा लगातार कमजोर व अनियमित माॅनसून के पीछे प्रधान कारक जलवायु परिवर्तन है. इसी के कारण तापमान भी बढ़ता जा रहा है.

By संपादकीय | September 21, 2022 8:34 AM

देश के उत्तर-पश्चिम से माॅनसून की वापसी की स्थितियां बन रही हैं और इसी के साथ चार माह के बरसात का मौसम अपने अंत की ओर अग्रसर है. देश की आधी से अधिक खेती सिंचाई के लिए माॅनसून पर निर्भर करती है, जो अमूमन जून में केरल से शुरू होता है तथा इसका अंतिम चरण सितंबर के मध्य में राजस्थान से प्रारंभ होता है. पूर्वानुमानों में बताया गया था कि इस वर्ष माॅनसून सामान्य रहेगा, लेकिन जून से सितंबर के बीच देश के अनेक हिस्सों में कम बारिश हुई,

जबकि दक्षिणी-पश्चिमी माॅनसून के समाप्त होने में देरी से कई जगहों पर अधिक बरसात हुई. रिपोर्टों की मानें, तो आठ राज्यों में पानी कम बरसा है. इस कारण धान की उपज को लेकर चिंताएं पैदा हो गयी हैं. उल्लेखनीय है कि इस वर्ष के पहले तीन महीनों में तापमान अधिक होने से गेहूं की फसल पर असर पड़ा था. खाद्यान्न उत्पादन में इस कमी से एक ओर किसानों की आमदनी पर ग्रहण लगा है, तो दूसरी तरफ बाजार में अनाज महंगा बिक रहा है.

भारतीय रिजर्व बैंक के ताजा बुलेटिन में छपे एक लेख में भी रेखांकित किया गया है कि माॅनसून की वापसी में देरी से खाद्यान्न कीमतों पर फिर से दबाव बढ़ने के आसार दिख रहे हैं. सितंबर की अनियमित बरसात ने गर्मी से कुछ राहत तो दी है, परंतु इस वजह से कुछ मुख्य सब्जियों के भाव बढ़ गये हैं. माॅनसून की अनियमितता के दो मुख्य हिस्से हैं- एक, लंबे समय तक बारिश का नहीं होना तथा दूसरा, थोड़े ही अंतराल में बहुत अधिक बरसात होना. बादल फटने की घटनाएं, सूखे जैसी स्थितियां, औचक बाढ़ आदि आम होते जा रहे हैं.

प्राकृतिक आपदाओं की बारंबारता बढ़ने तथा लगातार कमजोर व अनियमित माॅनसून के पीछे प्रधान कारक जलवायु परिवर्तन है. इसी के कारण तापमान भी बढ़ता जा रहा है तथा जाड़े का मौसम छोटा होने लगा है. हालांकि यह वैश्विक समस्या है तथा यूरोप व अमेरिका जैसे समृद्ध क्षेत्र भी इससे प्रभावित हैं, लेकिन भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह स्थिति कहीं अधिक चिंताजनक है.

बहुत बड़ी आबादी के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना, पर्यावरण को बेहतर बनाना तथा प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करना जैसे कार्य दिन-ब-दिन चुनौतीपूर्ण होते जायेंगे. पानी का संकट, मिट्टी का क्षरण, वनों का लोप, नदियों में गाद भरना, पारिस्थितिक असंतुलन, जल, वायु व मिट्टी का प्रदूषण समुद्री जल स्तर बढ़ने से तटीय इलाकों से पलायन जैसी समस्याएं मुंह बाये खड़ी हैं. जलवायु संकट से निपटने के उपायों को गंभीरता से अपनाने की आवश्यकता है.

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