पंडित जवाहरलाल नेहरू की यादों के साथ इधर एक बडी विडंबना जुड़ गयी है कि जब भी उनकी बात चलती है, उनके बडे योगदानों, बड़ी उपलब्धियों और बड़ी विफलताओं के हवाले हो जाती है. उनके जीवन के वे छोटे प्रसंग अचर्चित रह जाते हैं, जो उनके व्यक्तित्व का बड़े प्रसंगों से कहीं ज्यादा पता देते हैं. साठ के दशक में फिल्मकार रिचर्ड एटनबरो के मन में महात्मा गांधी पर फिल्म बनाने का विचार आया, तो वे पंडित नेहरू से मिले.
नेहरू ने उन्हें बस एक ही हिदायत दी कि ‘जब भी यह फिल्म बनाना, बापू को देवता की तरह नहीं, मनुष्य की तरह ही चित्रित करना.’ कहते हैं कि बाद में एटनबरो ने ‘गांधी’ नाम से फिल्म बनायी, तो उसके एक भी दृश्य में इस हिदायत को नहीं भुलाया. यही कारण है कि 1982 में वह प्रदर्शित हुई, तो दर्शकों को ज्यादातर बापू के मनुष्य रूप का ही साक्षात्कार कराती दिखी.
कह सकते हैं कि अगर कोई मनुष्य ‘देवता’ नहीं है और होना भी नहीं चाहता, तो उसके संदर्भ में यह स्वाभाविक है. खासकर जब वह ऐसा मनुष्य हो कि उसके जैसा होना भी आसान न हो. उसकी जड़ें न सिर्फ आधुनिक भारतीय राष्ट्र-राज्य यानी संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में ‘भारत के वास्तुकार’ से लेकर ‘बच्चों के चाचा’ तक फैली हुई हों.
नेहरू की सबसे बड़ी खासियत यही है कि वे अपने किसी भी रूप में किसी को ऐसी कोई छूट देते नजर नहीं आते, जिससे उन्हें किसी भी स्तर पर पोंगापंथ, प्रतिगामिता, परंपरावाद और संप्रदायवाद का रंचमात्र भी पैरोकार साबित किया जा सके. स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान वे जिन मूल्यों के साथ रहे और प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने जैसे आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष और बहुलतावादी भारत का निर्माण करना चाहा, उससे जुड़े उनके विचारों व कदमों की यह कहकर तो आलोचना की जा सकती है कि कई मामलों वे कुछ ज्यादा ही ‘स्ट्रेट फारवर्ड’ हो गये,
लेकिन यह कहकर नहीं की जा सकती कि उन्होंने अपनी आधुनिकता या प्रगतिशीलता में कोई लोचा रह जाने दिया. नव स्वतंत्र देश में उन्हें इसके लिए कांग्रेस के अंदर व बाहर के संकीर्णतावादियों से और कई बार दोनों के गठजोड़ से भी लोहा लेना पड़ा. नेहरू के ही शब्दों में कहें, तो उन दिनों संकीर्णता व सांप्रदायिकता ने उन लोगों के दिलो-दिमाग में भी प्रवेश कर लिया था, जो पहले कांग्रेस के स्तंभ हुआ करते थे. नेहरू ने दो मई, 1950 को सभी मुख्यमंत्रियों को लिखा था, ‘हम संप्रदायों के बीच एकता का उद्देश्य भूल गये हैं. धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं पर उसे बहुत कम समझ पाये हैं.’
फिर भी संकीर्णतावादियों की ओर से पुरुषोत्तम दास टंडन उनकी मनाही के बावजूद अगस्त, 1950 में हुए कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़े और जीते. इसके अगले महीने नासिक में हुए कांग्रेस सम्मेलन में संकीर्णतावादियों का मनोबल बहुत ऊंचा था. लेकिन नेहरू ने इनके प्रति नरम होने के बजाय सम्मेलन के मंच से आर या पार की शैली में कई दो टूक बातें कहीं. यह भी कि ‘पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर जुल्म हो रहे हैं, तो क्या हम भी यहां वही करें?
यदि इसे ही जनतंत्र कहते हैं, तो भाड़ में जाये ऐसा जनतंत्र! ...महान कार्य और छोटे लोग एक साथ नहीं चल सकते.’ जानकारों की मानें, तो नेहरू की इस खरी-खरी के पीछे उनके द्वारा आजादी के विकट संघर्ष में निभायी गयी उस भूमिका का दर्प भी मुखर था, जिसके तहत उन्होंने अपने जीवन के नौ साल गोरों की जेलों में बिताये थे. उसी दौर में उन्होंने हमें ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ जैसी बहुमूल्य पुस्तक भी दी थी. खैर, देश की जनता नेहरू के साथ थी. इस जनता ने 1952 के लोकसभा चुनाव में नेहरू की नीतियों पर मुहर लगा दी, तो वे अनेक विडंबनाओं से गुजरते हुए ‘आधुनिक भारत के निर्माण’ में लग गये.
भारत सांपों व संपेरों के देश की छवि से बाहर निकलकर नियति से ऐतिहासिक साक्षात्कार करते हुए भाखंडा व नांगल जैसे ‘आधुनिक भारत के नये तीर्थों’ के रास्ते भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की गर्वीली उपलब्धियों तक पहुंचा, तो इसका सर्वाधिक श्रेय नेहरू को ही जाता है
आज हम धर्म व संप्रदाय की जिन चुनौतियों से दो-चार होने को अभिशप्त हैं और उन्हें लगातार जटिल होती देख रहे हैं, आजादी के तुरंत बाद के वर्षों में त्रासद बंटवारे के बावजूद वे सिर नहीं उठा सकीं, तो सिर्फ इसलिए कि नेहरू ने उनसे निपटने में कतई यह नहीं देखा कि किसी संकीर्णतावादी का धर्म कौन-सा है और वह कांग्रेस के अंदर का है या उसके बाहर का.
गौरतलब है कि शांतिपूर्ण सहअस्तित्व उनके द्वारा पड़ोसी चीन से किये गये उस बहुचर्चित पंचशील समझौते का भी हिस्सा था, 1962 में जिसे तोड़कर चीन ने देश पर अचानक आक्रमण कर दिया. यह बहुत बड़ा विश्वासघात था, जिससे नेहरू टूटकर रह गये. अंततः 1964 में बुधवार, 27 मई की झुकती दोपहरी में उनका निधन हो गया.