प्रो मनमोहिनी कौल
हिंद-प्रशांत क्षेत्र विशेषज्ञ
manmohinikaul@gmail.com
बीते दिनों पापुआ न्यू गिनी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में आयोजित तीसरा भारत-प्रशांत द्वीप सहयोग फोरम (एफआइपीआइसी) शिखर सम्मेलन एक महत्वपूर्ण आयोजन है. अपनी ‘एक्ट ईस्ट ’ नीति के तहत भारत ने इस फोरम की स्थापना 2014 में की थी और उसी साल नवंबर में फिजी में इसका पहला शिखर सम्मेलन आयोजित हुआ था, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी ने भाग लिया था.
इस समूह की दूसरी बैठक 2015 में जयपुर में हुई थी. तबसे इसके तहत विभिन्न प्रकार के आयोजन होते रहे हैं. इस सहयोग फोरम में भारत के अतिरिक्त प्रशांत क्षेत्र के 14 द्वीपीय देश- फिजी, पापुआ न्यू गिनी, कुक आइलैंड्स, किरीबाती, मार्शल आइलैंड्स, माइक्रोनेशिया, नौरू, नियू, पलाऊ, समोआ, सोलोमन आइलैंड्स, टोंगा, तुवालू और वनुआतू- शामिल हैं. पिछले कई वर्षों से दक्षिण-पूर्व एशिया के देश भारत से बहुत उम्मीदें लगाये बैठे थे.
यह क्षेत्र लंबे समय से बड़ी शक्तियों की तनातनी का अखाड़ा बना हुआ है. स्वाभाविक रूप से इस क्षेत्र से भारत के हित भी जुड़े हुए हैं. इसी को मद्देनजर रखते हुए भारत ने 1991 में ‘लुक ईस्ट’ नीति की शुरुआत की, जिसका दायरा धीरे-धीरे बढ़ता गया और इसमें दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ पूर्वी एशिया और प्रशांत क्षेत्र के द्वीपीय देश भी आते गये. प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में ‘लुक ईस्ट’ नीति अब ‘एक्ट ईस्ट’ नीति बन चुकी है.
जैसा हमने पहले उल्लेख किया कि इस क्षेत्र में वैश्विक शक्तियों- विशेषकर अमेरिका और चीन- की रस्साकशी चलती रही है, तो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत की भूमिका केंद्रीय होती जा रही है. इस क्षेत्र का सामरिक महत्व तो है ही, साथ ही प्राकृतिक संसाधनों के लिए बड़ी शक्तियां तमाम देशों को अपने पाले में लाने की कोशिश करती रही हैं. जब 2014 में भारत ने ‘एक्ट ईस्ट’ नीति का प्रसार करना प्रारंभ किया, तो इस फोरम की स्थापना के साथ प्रधानमंत्री मोदी फिजी गये.
अगले साल जयपुर में हुई फोरम की बैठक में कई समझौतों पर सहमति बनी थी. साल 2016 में पहली बार तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने पापुआ न्यू गिनी का दौरा किया था. इससे इंगित होता है कि भारत इस फोरम को लेकर कितना गंभीर रहा है. अमेरिका भी हिंद-प्रशांत क्षेत्र को लेकर सजग है. साल 2012 में तत्कालीन अमेरिकी विदेश सचिव हिलेरी क्लिंटन ने इस इलाके का दौरा किया था. चीन ने भी अपनी सक्रियता बढ़ायी है.
प्रधानमंत्री मोदी के फिजी दौरे के तुरंत बाद चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी वहां पहुंचे. पिछले साल भी चीनी राष्ट्रपति पापुआ न्यू गिनी गये थे. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन भी गये थे. अमेरिकी विदेश सचिव एंथोनी ब्लिंकेन ने भी पापुआ न्यू गिनी की यात्रा की है.
प्रशांत क्षेत्र के द्वीपीय देशों की अनेक समस्याएं हैं और वे नहीं चाहते हैं कि वे वैश्विक शक्तियों के लिए महाअखाड़ा बन जाएं. ये देश अमेरिका और चीन की सक्रियता और उद्देश्यों को लेकर सचेत हैं. जलवायु संकट जैसी गंभीर समस्या का बड़ा असर इन द्वीपीय देशों पर पड़ रहा है. बढ़ते समुद्री जलस्तर के कारण इन्हें अपने अस्तित्व को बचाने को प्राथमिकता देनी पड़ रही है. ऐसे में अगर बड़ी शक्तियों की तनातनी यहां रही, तो उसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ेगा.
इस स्थिति में फोरम के सदस्य देश भारत को एक संतुलनकारी उपस्थिति के रूप में देखते हैं. यही वजह है कि इन देशों ने प्रधानमंत्री मोदी का स्वागत बड़ी गर्मजोशी से किया और पापुआ न्यू गिनी एवं फिजी ने उन्हें अपने देश के सर्वोच्च सम्मान से नवाजा. उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री मोदी का मानना है कि ये देश आकार में छोटे भले ही हों, पर उनका जो सामुद्रिक महत्व है, वह बहुत बड़ा है. यही बात प्रशांत क्षेत्र के द्वीपीय देश भी दुनिया को बताना चाहते हैं कि वे छोटे देश नहीं हैं और उनका समुद्र बहुत विशाल है.
द्वीपीय देशों ने भारत को ग्लोबल साउथ का नेता मानते हुए यह कहा है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत ही उनके मुद्दों को असरदार ढंग से उठा सकता है. भारत बहुत पहले से दुनिया के छोटे देशों का प्रतिनिधित्व करता आया है. गुटनिरपेक्ष आंदोलन हो, विश्व व्यापार संगठन और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की बैठकें हों, संयुक्त राष्ट्र हो, सब जगह भारत छोटे देशों की आवाज बनता रहा है.
इन देशों के साथ संबंधों के आर्थिक आधार की अगर चर्चा करें, तो पिछले वर्षों में इन देशों में चीन का कर्ज लगातार बढ़ता गया है, जो इन देशों के लिए बड़ी चिंता का कारण बनता जा रहा है. आर्थिक सहायता के नाम पर चीन अपना शिकंजा कसता जा रहा है. इस तथ्य से ये देश अच्छी तरह से वाकिफ हैं. धीरे-धीरे चीन की असलियत भी जगजाहिर हो रही है. हाल में हमने श्रीलंका और कुछ अन्य मुल्कों के आर्थिक संकट को देखा है.
ऐसे में सभी देश चीन पर अपनी निर्भरता को घटाना चाहते हैं. चूंकि चीन दुनिया के बहुत सारे देशों का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है, तो उनमें दक्षिण प्रशांत के ये देश भी आते हैं. चीन ने सोलोमन आइलैंड्स में अपना नौसैनिक अड्डा स्थापित करने की मंशा जतायी है. वह पापुआ न्यू गिनी के साथ भी इस तरह की चर्चा कर रहा है. इसके प्रतिकार में अमेरिका भी पापुआ न्यू गिनी के साथ रक्षा समझौते करने का प्रयास कर रहा है. यह देश उस क्षेत्र का सबसे बड़ा द्वीपीय देश है.
पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया में ऐतिहासिक रूप से भारत का अच्छा-खासा प्रभाव रहा है. अनेक द्वीपीय देशों में भारतीय मूल के लोग हैं. इस सांस्कृतिक संबंध को व्यापक व्यापारिक संबंध में बदलने की बड़ी संभावनाएं हैं. संयुक्त राष्ट्र में इन सभी देशों का एक-एक वोट होता है. इस वजह से भी वे भारत के वैश्विक प्रयासों के लिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं. भारत की ‘एक्ट ईस्ट’ नीति जिस तरीके से काम कर रही है- छोटे-छोटे देशों के साथ सहकार बढ़ाना और समान हितों को रेखांकित करना- उससे भविष्य के लिए बड़ी उम्मीदें हैं.
जैसा हमने पहले कहा कि ये द्वीपीय देश नहीं चाहते हैं कि न तो अमेरिका जरूरत से ज्यादा इस इलाके में अपना प्रभाव बढ़ाये और न ही चीन. ऐसी स्थिति में भारत ही वह भूमिका निभाने की आदर्श स्थिति में है कि वह एक भरोसेमंद सहयोगी बने. इससे भारत को ही लाभ नहीं होगा, बल्कि प्रशांत क्षेत्र के देशों को भी फायदा मिलेगा. भारत को बढ़-चढ़कर इन द्वीपीय देशों के साथ बहुआयामी संबंधों को आगे बढ़ाना चाहिए. ऐसा होने से भारत भविष्य में अपने को एक भरोसेमंद बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित करने में सफल होगा.
(ये लेखकद्वय के निजी विचार हैं.)