आजादी और भारत छोड़ो आंदोलन

भारत छोड़ो आंदोलन के पांच साल बाद अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा था. इस आंदोलन की शुरुआत आठ अगस्त, 1942 को हुई थी.

By Ashutosh Chaturvedi | August 8, 2022 7:57 AM

आगामी 15 अगस्त को हमारी आजादी के 75 वर्ष पूरे होने जा रहे हैं, जिसे पूरा देश आजादी के अमृत महोत्सव के रूप में मना रहा है. यह देश के लिए बेहद महत्वपूर्ण पड़ाव है. यह अवसर है, जब हम इतिहास का सिंहावलोकन करें और भविष्य का चिंतन करें.

आजादी की लड़ाई में दो पड़ाव सबसे ज्यादा अहम हैं- पहला 1857 की क्रांति और दूसरा 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन, जिसे अगस्त क्रांति के नाम से भी जाना जाता है. यह आजादी के आंदोलन में सबसे बड़ा जन संघर्ष था. हमें यह याद रखना चाहिए कि यह आजादी बड़े संघर्षों के बाद मिली है. इसके लिए देश के लाखों वीर सपूतों ने अपनी जान न्योछावर की थी.

आजादी की कीमत को हम सबको समझना चाहिए और इसका सम्मान करना चाहिए. साथ ही, आजादी के लिए जान न्योछावर करने वाले सपूतों के प्रति कृतज्ञता का भाव होना चाहिए. भारत छोड़ो आंदोलन के पांच साल बाद अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा था. इस आंदोलन की शुरुआत आठ अगस्त, 1942 को महात्मा गांधी ने की थी. इस मौके पर उन्होंने देश को ‘करो या मरो’ का नारा दिया था. गांधी ने स्पष्ट कर दिया था कि इस बार आंदोलन बंद नहीं होगा.

उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था. भारत छोड़ो आंदोलन से ब्रितानी हुकूमत परेशान हो उठी थी और उसने क्रांतिकारियों पर काबू पाने के लिए देशव्यापी गिरफ्तारियां शुरू कर दीं. नौ अगस्त, 1942 को दिन निकलने से पहले ही बड़ी संख्या में क्रांतिकारी गिरफ्तार कर लिये गये और कांग्रेस को गैर कानूनी संस्था घोषित कर दिया गया. महात्मा गांधी को नजरबंद कर दिया गया था.

इस आंदोलन की तीव्रता का एहसास इस बात से लगाया जा सकता है कि इसमें 940 लोग मारे गये थे और 60 हजार से अधिक लोगों ने गिरफ्तारियां दीं थीं. महात्मा गांधी की गिरफ्तारी के बाद तो जनता सड़कों पर उतर आयी. एक और अहम बात यह थी कि इस आंदोलन का नेतृत्व युवा क्रांतिकारियों ने किया. मजदूर हड़ताल पर चले गये और सरकारी कर्मचारियों ने भी काम करना बंद कर दिया. स्वाधीनता आंदोलन का यह सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव था.

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ही डॉ राम मनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण और अरुणा आसफ अली जैसे नेता उभर कर सामने आये. हालांकि इस आंदोलन को आंशिक सफलता ही मिली, लेकिन इस आंदोलन ने देश को एक सूत्र में बांध दिया और अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला दी थी. अंतत: ब्रिटिश सरकार झुकी और वह सत्ता का हस्तांतरण करने पर राजी हो गयी. अमृत महोत्सव के मौके पर हमें यह याद रखना चाहिए कि अंग्रेजी हुकूमत के अमानवीय दमन के बावजूद लाखों लोगों के बलिदान से ही हमें आजादी मिल पायी है.

आजादी के अमृत महोत्सव की शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 12 मार्च, 2021 को साबरमती आश्रम से की थी. उल्लेखनीय है कि 12 मार्च, 1930 को महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह की शुरुआत की थी. प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि आजादी का अमृत महोत्सव यानी आजादी की ऊर्जा का अमृत, स्वाधीनता सेनानियों से प्रेरणाओं का अमृत, नये विचारों का अमृत, नये संकल्पों का अमृत और आत्मनिर्भरता का अमृत है.

अंग्रेजी शासनकाल में भारतीयों को नमक बनाने का अधिकार नहीं था. उन्हें इंग्लैंड से आने वाले नमक का ही इस्तेमाल करना पड़ता था. महात्मा गांधी ने इस मसले को जन-जन का आंदोलन बनाया था. यह गांधी के विचारों की ताकत ही है कि उनके विचार आज भी जिंदा है. देश व दुनिया में बड़ी संख्या में लोग आज भी उनके विचारों से प्रेरणा लेते हैं. कुछ समय से व्हाट्सएप के ज्ञान के आधार पर कुछ लोग महात्मा गांधी पर सवाल खड़े करने लगते हैं, जबकि यह अवसर है गांधी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करने का.

गांधी से असहमतियां हो सकती हैं, लेकिन उनमें इतनी खूबियां हैं कि केवल असहमतियों अथवा कमियों का सहारा लेकर उन्हें खारिज कर देने से हम उनकी विरासत को नष्ट कर देंगे. गांधी के आलोचक अक्सर तथ्यों की परवाह नहीं करते हैं. ऐसे आलोचकों की एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो रही है, जिसकी जानकारी का स्रोत व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी है. ऐसे लोग असत्य जानकारियों के आधार पर महात्मा गांधी के बारे में अपनी धारणा बनाते हैं. ऐसी तथ्यहीन व झूठी जानकारियां अब सोशल मीडिया में बड़े पैमाने पर उपलब्ध हैं.

सार्वजनिक जीवन वाले हर शख्स का कठोर मूल्यांकन होता रहा है. महात्मा गांधी भी इससे अछूते नहीं रहे हैं और उनके जीवन का लगातार आकलन होता रहा है. किसी भी व्यक्ति की सभी मुद्दों पर राय अथवा फैसले सौ फीसदी सही नहीं हो सकते हैं, लेकिन उसके पीछे उनकी मंशा को जानना भी जरूरी है. ऐसे भी लोग हैं, जो गांधी को आज के दौर में आप्रसंगिक मान बैठे हैं.

वे तर्क देते हैं कि गांधी एक विशेष कालखंड की उपज थे, लेकिन जीवन का कोई ऐसा विषय नहीं है, सामाजिक व्यवस्था का कोई ऐसा प्रश्न नहीं है, जिस पर महात्मा गांधी ने प्रयोग न किये हों और हल निकालने का प्रयास न किया हो. उनके पास अहिंसा, सत्याग्रह और स्वराज नामक तीन हथियार थे.

सत्याग्रह और अहिंसा के उनके सिद्धांतों ने न केवल भारत, बल्कि पूरी दुनिया के लोगों को अपने अधिकारों और अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी. सबसे बड़ी बात यह है कि गांधी अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं करते थे. एक बार वह तय कर लेते थे, तो वह उससे पीछे नहीं हटते थे. विपरीत परिस्थितियां भी गांधी को उनके सिद्धांतों से नहीं डिगा पायीं.

गीता ने गांधीजी को सबसे अधिक प्रभावित किया था. गीता के दो शब्दों ने को गांधीजी ने आत्मसात कर लिया था. इसमें एक था- अपरिग्रह, जिसका अर्थ है मनुष्य को अपने आध्यात्मिक जीवन को बाधित करने वाली भौतिक वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिए. दूसरा शब्द है समभाव. इसका अर्थ है दुख-सुख, जीत-हार, सब में एक समान भाव रखना, उससे प्रभावित नहीं होना.

दो अक्तूबर, 1944 को महात्मा गांधी के जन्मदिवस के अवसर पर जाने माने वैज्ञानिक आइंस्टीन ने अपने संदेश में कहा था- आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़ मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता फिरता था. यह वाक्य गांधी को जानने-समझने के काफी है. जो बातें और रास्ता समाज के विकास के लिए महात्मा गांधी दिखा गये हैं, उनमें से जो हमें अनुकूल लगे, उसका अनुसरण करें. गांधी और आजादी की लड़ाई में अपना संपूर्ण न्योछावर करने वाले देश के वीर सपूतों को हमारी यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

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