यह हमारा भी देश है

विश्वनाथ सचदेव वरिष्ठ पत्रकार navneet.hindi@gmail.com हरियाणा के एक गांव संजखास के संजय कुमार को पीटा गया. उसका अपराध था कि अपनी शादी में वह घोड़ी पर बैठा था. उसका अपराध यह भी थाö कि उसका जन्म दलित परिवार में हुआ था और उस गांव की परंपरा के अनुसार दलितों को घोड़ी पर बैठ कर बारात […]

By Prabhat Khabar Print Desk | May 25, 2017 6:15 AM

विश्वनाथ सचदेव

वरिष्ठ पत्रकार

navneet.hindi@gmail.com

हरियाणा के एक गांव संजखास के संजय कुमार को पीटा गया. उसका अपराध था कि अपनी शादी में वह घोड़ी पर बैठा था. उसका अपराध यह भी थाö कि उसका जन्म दलित परिवार में हुआ था और उस गांव की परंपरा के अनुसार दलितों को घोड़ी पर बैठ कर बारात ले जाना अपराध है. यह विशेषाधिकार सिर्फ सवर्णों का है. राजस्थान के गुंडूसर गांव का विजय कुमार भी अपने कुनबे के साथ लाउडस्पीकर बजाते हुए बारात ले जा रहा था.

दलित होने के बावजूद उसने यह हिमाकत कीö, सजा तो उसे मिलनी ही थी. उस पर और उसके परिवार के लोगों पर राजपूतों ने हमला कर दिया. इसी तरह उदयपुर में कैलाश मेघवाल घोड़ी पर चढ़ कर बारात ले जा रहा था. तथाकथित ऊंची जाति के लोगों ने उसे घोड़ी से उतार कर सड़क पर घसीटा और पीटा. ऐसी अनेकों खबरें हैं. यह सिर्फ एक झांकी है 21वीं सदी के भारत में पल रहे सोच की. सामाजिक समानता के सारे दावों की पोल खोलती ये और ऐसी घटनाएं उस मानसिकता को उजागर करती हैं, जिसे सिर्फ अमानवीय कहा जा सकता है.

मनुष्यता के खिलाफ इस अपराध के लिए हमारे यहां सजा का प्रावधान है. इन सारे मामलों में भी पुलिस ने कार्रवाई की है, पर सारे अभियुक्त जमानत पर हैं. कहीं-कहीं पुलिस की सुरक्षा में दलितों की बारातें निकली भी हैं, पर इसको भी दलितों की ढिठाई के रूप में ही देखा गया है.

हरियाणा के एक गांव में तो मंत्रियों ने जाकर ऐसी एक बारात को संभव बनवाया था. मंत्रियों के कहने पर सवर्णों ने माफी भी मांग ली. दलितों ने पुलिस में की गयी शिकायत वापस ले ली. विवशता में किया गया यह एक असहज समझौता है. वहीं दलितों का कहना है, ‘हम अपने लिए नहीं लड़ रहे, अपनी आनेवाली पीढ़ियों के अधिकार के लिए लड़ रहे हैं.’

हरियाणा और राजस्थान के साथ ही देश के अलग-अलग हिस्सों में इस लड़ाई के चेहरे भले ही अलग-अलग दिखते हों, पर है यह लड़ाई एक मनुष्य के रूप में अपनी पहचान कराने की ही.

वैसे तो सदियों से लड़ी जा रही है यह लड़ाई, लेकिन माना यह गया था कि स्वतंत्र भारत में बाबा साहेब आंबेडकर के नेतृत्व में बने संविधान द्वारा दिये गये समता के अधिकार के बाद जन-मानस अपने इस कर्तव्य को भी समझ लेगा कि समता का यह दर्शन हर उस व्यक्ति से समाजिक विषमता की खाई को पाटने में भागीदारी की मांग करता है. लेकिन, ऐसा हुआ नहीं.

दलितों के नाम पर देश में बहुत कुछ हुआ है. बहुत कुछ हो भी रहा है. हर राजनीतिक दल दलितों के पक्ष में खड़ा होने के वादे और दावे करता है. दलितों के ‘अपने’ राजनीतिक दल भी बन गये हैं. दलितों के पक्ष में बहुत सारे कानून भी बने हैं. उनकी स्थिति में सुधार भी हुआ है.

लेकिन, त्रासदी यह है कि आज भी हमारा समाज ‘हम’ और ‘वे’ में बंटा हुआ है. यदि ‘हम’ सवर्ण हैं, तो ‘वे’ के पाले में सदियों से मनुष्य रूप में मिलनेवाले समानता के अधिकार से वंचित लोग हैöं, जिन्हें सवर्णों के समकक्ष खड़ा होने का अधिकार नहीं मिला है. 21वीं सदी का ‘दलित’ यह कह रहा है कि ‘हम जो चाहते हैं, वह क्यों नहीं कर सकते? यह हमारा भी देश है. सब ताकत की भाषा समझते हैं.’ ये शब्द उस संजय के हैं, जो पढ़-लिख कर कुछ बन भी चुका है और अब दलितों के लिए कुछ करना चाहता है.

राजधानी दिल्ली के जंतर-मंतर में इन दिनों कुछ करने के लिए उतारू दलित युवा धरना दिये बैठें हैं. ये युवा सहारनपुर में दलितों पर हुए ‘अत्याचार’ के निषेध के लिए एकत्र हुए हैं.

उन्हें सरकार की कार्रवाई अपर्याप्त लग रही है और बसपा, कांग्रेस या सपा से भी उनकी उपेक्षाएं पूरी नहीं हो रहीं. उन्हें लग रहा है कि सभी राजनीतिक दल चुनावी गणित के अनुसार कार्रवाई करते हैं. युवाओं में ऐसी धारणा का बनना उनके भीतर खदबदा रहे ज्वालमुखी के रूप में समझा जाना चाहिए. एक नये युवा नेता के आह्वान पर हजारों दलित युवाओं का जंतर-मंतर पर धरने के लिए पहुंचना इस बात का भी संकेत है कि देश के युवा दलित पारंपरिक राजनेताओं के सम्मोहन से मुक्त हो रहे हैं. उत्तर प्रदेश का सहारनपुर हो या गुजरात का गुना या फिर दक्षिण में हैदराबाद, सब तरफ सामाजिक असंतोष की लहरें उठ रही हैं.

सवाल घोड़ी पर चढ़ कर बारात ले जाने का नहीं है, उस बराबरी के हक का है, जो जनतंत्र में सबको मिलना ही चाहिए. और यह अधिकार कानूनों से सुरक्षित नहीं होगा, राजनेताओं के वादों से भी नहीं.

यह समाज की सोच को बदलने की लड़ाई है. वंचितों को उनका हक मिलने का अर्थ है दलित और सवर्ण के बीच की दूरी को खत्म करना. यह दूरी मन की है. मन बदलने होंगे. राजनीति से ऊपर उठ कर मनुष्यता के धरातल पर इसे समझना होगा. तब किसी संजय, किसी विजय, किसी कैलाश के घोड़ी पर बैठ कर, बैंड-बाजे के साथ बारात निकालने का औचित्य सिद्ध होगा.

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