भारत-चीन युद्ध पर यह गोपनीयता क्यों!

स्थापित लोकतंत्र होने के बावजूद हमारी सरकारें बेतुकी गोपनीयता के फेर में फंसी रहती हैं. भारत-चीन युद्ध पर लेफ्टिनेंट हेंडरसन ब्रुक्स और ब्रिगेडियर प्रेम भगत की रिपोर्ट को पांच दशकों से अधिक समय से दबा कर रखना ऐसे बेतुकेपन का ही उदाहरण है. भारतीय सेना के निर्देश पर तैयार इस रिपोर्ट में 1962 के युद्ध […]

By Prabhat Khabar Print Desk | March 20, 2014 5:58 AM

स्थापित लोकतंत्र होने के बावजूद हमारी सरकारें बेतुकी गोपनीयता के फेर में फंसी रहती हैं. भारत-चीन युद्ध पर लेफ्टिनेंट हेंडरसन ब्रुक्स और ब्रिगेडियर प्रेम भगत की रिपोर्ट को पांच दशकों से अधिक समय से दबा कर रखना ऐसे बेतुकेपन का ही उदाहरण है. भारतीय सेना के निर्देश पर तैयार इस रिपोर्ट में 1962 के युद्ध के कारणों और स्थितियों की पड़ताल की गयी थी.

हेंडरसन ने यह रिपोर्ट 1963 में ही सौंप दी थी, पर यह आज भी सरकार के किसी बक्से में बंद है. इसे प्रकाशित करने की मांग अक्सर होती रही है. 2009 में वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने सूचना के अधिकार के तहत इसकी प्रति मांगी थी, परंतु इसे देश की संप्रभुता एवं अखंडता के लिए संवेदनशील मानते हुए देने से मना कर दिया गया था. इसी आधार पर सरकार ने 2012 में इसे संसद में रखने से भी इनकार कर दिया था.

अब ऑस्ट्रेलियन पत्रकार नेविल मैक्सवेल ने रिपोर्ट के बड़े हिस्से को इंटरनेट पर डाल कर राजनीति के गलियारों में सनसनी फैला दी है. इस सनसनी के बीच इसे सार्वजनिक करने की मांग फिर हो रही है. सैन्य इतिहास और भविष्य की तैयारियों के मद्देनजर यह जरूरी भी लगता है. हालांकि, इस सवाल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि मैक्सवेल ने रिपोर्ट के अंश को को चुनाव के वक्त क्यों सार्वजनिक किया है? भारत से उनकी चिढ़ सर्वविदित है. परंतु, इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि पंडित नेहरू के नेतृत्व की नाकामी, तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन का सेना के साथ तालमेल का अभाव और चीन में भारतीय राजदूत की लापरवाही आदि के बारे में ठोस जानकारी से देश को वंचित रखा जाये. रक्षा मंत्री एके एंटनी भले इसे अति संवेदनशील व युद्ध की स्थिति में उपयोगी मानें, लेकिन उनकी इस बात पर भरोसा मुश्किल है.

वे 1962 की पराजय के आरोप से नेहरू को बचाने की राजनीतिक जिम्मेवारी तो निभा रहे, पर विशेषज्ञों द्वारा खुद को सबसे असफल रक्षा मंत्री बताये जाने से परेशान नहीं हैं. यह रिपोर्ट ही नहीं, भारत-चीन विवाद से जुड़े कई दस्तावेज सरकारी बक्से में कैद हैं. इस तरह नाकामियों पर गोपनीयता की चादर डाल कर भारत महाशक्ति बनना तो दूर, एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में बची-खुची हैसियत भी अधिक समय तक संभाल कर नहीं रख सकता है.

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