मन के भीतर का मौसम

कविता विकास स्वतंत्र लेखिका प्रकृति में हर मौसम के अनुसार रंग उपलब्ध हैं. साल का कोई भी महीना ऐसा नहीं है, जब प्रकृति बेरंगी रहती हो. जाड़े के दिनों में सबसे ज्यादा फूल-पौधे खिलते हैं, पर गर्मी जब पूरे शबाब में होती है, तो भी रंगों का आकर्षण कम नहीं होता. हमारे यहां की आधी […]

By Prabhat Khabar Print Desk | May 18, 2017 6:04 AM
कविता विकास
स्वतंत्र लेखिका
प्रकृति में हर मौसम के अनुसार रंग उपलब्ध हैं. साल का कोई भी महीना ऐसा नहीं है, जब प्रकृति बेरंगी रहती हो. जाड़े के दिनों में सबसे ज्यादा फूल-पौधे खिलते हैं, पर गर्मी जब पूरे शबाब में होती है, तो भी रंगों का आकर्षण कम नहीं होता.
हमारे यहां की आधी दर्जन ऋतुएं अपने विविध रंगों के माध्यम से ही अपना सौंदर्य लुटाती हैं. पंचतत्त्व से निर्मित मानव शरीर भी अपने मन में इंद्रधनुषी रंगों का समावेश किये हुए है. रंग से आनंद है, आनंद से उमंग और उमंग से जीवन का तारातम्य. गरमी अपने शबाब पर है. घरेलू बगिया पानी के अभाव में कुछेक शो प्लांट्स या गर्मी सहनेवाले कूचिया, सूर्यमुखी या जीनिया तक ही सीमित हो गयी है.
मन को आह्लादित करने के लिए किसी विशेष बाग-क्षेत्र में जाने की जरूरत नहीं, यह तो आस-पास के झूमते-गाते पलाश, अमलतास, सेमल और गुलमोहर को देख कर ही बाग-बाग हो जाता है. भीषण गरमी के कारण गलियां ग्यारह बजते-बजते सूनी पड़ जाती हैं. लंबी काली सड़कों के दोनों ओर के अमलतास अपने पीले-पीले फूल से आसमान को लुभाते रहते हैं. गुलमोहर भी अपने लाल-लाल फूल जमीन में बिखेर कर फूलों की सेज सजाते रहते हैं.
गरमी सहने की काबिलियत रखनेवाले ये बड़े वृक्ष खुद-ब-खुद खिलते-मिटते रहते हैं, मानो यह बतलाना चाहते हों कि वे तो धरती के संरक्षक हैं, मान-अपमान से परे, अपनी गरिमा स्वयं बनानेवाले. प्रकृति के सान्निध्य में रह कर हमें सीखना चाहिए कि विविध रंगों को हम अपनी जिंदगी में कैसे उतारें. यह तो मानवीय प्रवृत्ति है कि हमें दुख की अवधि सदैव लंबी लगती है और जब हम अतीत पर अवलोकन करते हैं, तो दुख के सफहे हटा कर केवल सुख देखते हैं.
भविष्य की कामना में भी केवल खुशी तलाशते हैं. प्रयास यह होना चाहिए कि आगत को उसके पूरे लाव-लश्कर के साथ अपनाया जाये.
परिस्थिति को आत्मसात कर लेने की क्षमता विकसित हो जायेगी, तो जीवन में अपने आप रंग घुलने लगेगा. रंगों से भरे इस कायनात में ही प्रेम और ब्रह्म की संरचना होती है. हम वातानुकूलित कमरे से निकल कर गरमी को मापते हैं और डरते रहते हैं, जबकि गृहस्थ, किसान और श्रमिक धरती के जर्रे-जर्रे में बिखरी सुनहरी किरणों से सांसों की गाढ़ी कमाई करते हैं और प्रफुल्ल रहते हैं.
कि मौसम हमारे मन के अंदर होता है. हमारा मन बाहरी वातावरण से जितनी जल्दी सामंजस्य स्थापित कर लेगा, हमें दुख-तकलीफ का भान भी कम होगा. हमारे दुख का आगमन क्षणिक है और सुख का विस्तार भी उबाऊ है. काल चक्र में प्रकृति दोनों का परिचय बारी-बारी से कराती हुई हमें संतुलन करना सिखाती है.

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