मैं ख्याल हूं किसी और का

मदन गोपाल सिंह गायक-संगीतकार साठ का दहाका खत्म होते-होते नौजवान सितारनवाज रईस खान करीब एक सितारे का रुतबा पा चुके थे. साथ ही सितार के गायकी अंग को लेकर उस्ताद विलायत खां की खास पहचान को भी असरकुन अंदाज में चैलेंज कर रहे थे. विलायत खां साहब के साथ उनका प्यार-इनकार ताउम्र कायम रहा! इंदौर […]

By Prabhat Khabar Print Desk | May 10, 2017 5:41 AM
मदन गोपाल सिंह
गायक-संगीतकार
साठ का दहाका खत्म होते-होते नौजवान सितारनवाज रईस खान करीब एक सितारे का रुतबा पा चुके थे. साथ ही सितार के गायकी अंग को लेकर उस्ताद विलायत खां की खास पहचान को भी असरकुन अंदाज में चैलेंज कर रहे थे. विलायत खां साहब के साथ उनका प्यार-इनकार ताउम्र कायम रहा!
इंदौर में पैदा हुए उस्ताद रईस खान के बाज में हैरानकुन मिठास और अद्भुत चंचलता का सम्मिश्रण था. लगभग इसी समय सरोदनवाज अमजद अली खां का भी वाद्य संगीत में उदय हो रहा था. दोनों ने मिल कर पूरे हिंदुस्तान में कई जुगल कंसर्ट भी किये, पर एक अरसे के बाद स्केल पे समझौता ना हो सकने की वजह से उन्हें साथ छोड़ना पड़ा. उस्ताद रईस खां का सितार खासे ऊंचे स्केल पे ट्यून रहता था, जिसकी वजह से हो सकता है कि रसिकों को उनके सितार की ध्वनि कुछ तीखी लगती हो. ऊंचे स्केल में जहां एक ओर ताकत का एहसास होता था, वहीं दूसरी ओर इससे रूहानी असर की शायद कुछ क्षति भी होती थी.
हर तंत्री साज का एक स्वाभाविक स्केल होता है, जिससे निश्चित ही एक सैंसुअल सिहरन पैदा होती है. इस लिहाज से उस्ताद रईस खान नयी ध्वनि चेतना के सृजक थे. यह कुछ कम बहादुरी का काम नहीं था. इस सब में उनका खुद निहायत दर्शनी होना भी असर पैदा करता था. वे कंसर्ट के बाहर भी अपने चाहनेवालों से घिरे रहते थे, जिसके कुछ अलग किस्म के खतरे भी थे.
दिल्ली में रईस साहब की बहुत सी महफिलें याद हैं. उनकी बॉडी लैंग्वेज एक महानगरी बॉडी लैंग्वेज थी. वे दीदनी थे, मगर एक मख्सूस अंदाज में- उनका शरीर स्त्री कोमलता और पुरुष अहम का मिश्रण था. इस लिहाज से वे दिल्ली वालों के शाइस्ता फ्यूडल शऊर से अलग थे. शायद यह कहा जा सकता है कि उनकी शख्सीयत में महानगरी आधुनिकता की तमाम संगतियां-विसंगतियां मौजूद थीं, जो उस वक्त दिल्ली के नौजवान कलाकारों में कम या बिलकुल ही नहीं थीं.
अस्सी के दशक में उनका पाकिस्तान के कराची में जाकर बस जाना उनके संगीत को एक नये मोड़ पर ले आया. सितार के लिए पहले वाली जमीन नहीं बची. लेकिन उस्ताद ने आसानी से हार नहीं मानी.
अब वे एक नयी शक्ल में सामने आये. वे एक कंपोजर और गायक के तौर पर सामने आये. उनकी धुनें बेहद प्रभावी, लेकिन मुश्किल थीं. इसलिए एक ही हद तक मकबूल हुईं. उनका संगीत-बद्ध किया नग्मा ‘मैं ख्याल हूं किसी और का, मुझे सोचता कोई और है’ उनकी खुद की अवस्था का नुमायां गीत है.

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