बैंक ऋण माफी के कुछ पहलू

बिभाष कृषि एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ पिछले कुछ समय से राजनीति और मीडिया में बहस चल रही है कि सरकार ने बैंकों से बड़े उद्योगपतियों का कर्ज माफ करवा दिया. किसानों के ऋणों की माफी को लेकर भी राजनीतिक और गैर-राजनीतिक पक्ष सक्रिय बने रहते हैं. हाल में एक बड़े बैंक के अध्यक्ष ने […]

By Prabhat Khabar Print Desk | March 24, 2017 6:12 AM

बिभाष

कृषि एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ

पिछले कुछ समय से राजनीति और मीडिया में बहस चल रही है कि सरकार ने बैंकों से बड़े उद्योगपतियों का कर्ज माफ करवा दिया. किसानों के ऋणों की माफी को लेकर भी राजनीतिक और गैर-राजनीतिक पक्ष सक्रिय बने रहते हैं. हाल में एक बड़े बैंक के अध्यक्ष ने किसानों की कर्ज माफी को लेकर एक बयान भी जारी किया है.

इन बहसों पर गौर करने से स्पष्ट होता है कि बैंकों की कार्यप्रणाली पर लोगों में ज्यादा जानकारी नहीं है. बैंकों में कर्ज माफी की प्रक्रियाओं पर अखबार-टीवी पर बहस नदारद है. भारत में ही बीमा, रेलवे, बस परिवहन, शेयर बाजार आदि पर न कोई व्यवस्थित लेखन है न साहित्य.अत: जनसामान्य को सुनी-सुनाई बातों पर भरोसा करना पड़ता है.

कोई भी व्यवसाय बिना उधार दिये नहीं चल सकता. बैंकों का तो मुख्य काम ही व्यवसाय चलाने के लिए उधार देना है. कुछ उधार तुरंत वसूल हो जाते हैं और कुछ धीरे-धीरे. कुछ उधार ऐसे होते हैं, जो हरसंभव प्रयत्न के बाद भी वसूल नहीं हो पाते. ऐसे कर्जों के साथ बैलेंस शीट में व्यवहार के लिए ‘दी इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया’ द्वारा एकाउंटिंग स्टैंडर्ड्स जारी किये गये हैं. बैंकों को इन एकाउंटिंग स्टैंडर्ड्स के अलावा आरबीआइ तथा भारत सरकार द्वारा जारी किये गये निर्देश भी मानने पड़ते हैं.

सभी व्यवसाय, ऐसे ऋण जिनको वसूला नहीं जा सका है, बट्टे-खाते में डाल देते हैं. बैंक भी ऐसा ही करते हैं.

बैंकों की अपने बोर्ड से अनुमोदित वसूल न हो रहे कर्जों को बट्टे-खाते में डालने की एक नीति होती है. बैलेंस शीट में एक तरफ डूबंत ऋण दिखाना और दूसरी तरफ लाभ दिखाना स्वस्थ परंपरा नहीं है. अत: बैंक ऐसे ऋणों को बैलेंस शीट से हटा कर उतना ही लाभ कम दिखाते हैं. विश्व-प्रचलित एकाउंटिंग नियम, आरबीआइ और भारत सरकार के नियमों का पालन करते हुए ये ऋण बैंकों के मुख्य लेजर से हटा दिये जाते हैं. इन ऋण खातों को कभी बंद नहीं किया जाता, बैलेंस शीट के बाहर एक अन्य लेजर में रिकॉर्ड रखा जाता है, ब्याज लगता रहता है, उनका वार्षिक ऑडिट होता है. वसूल होने पर उक्त राशि सीधे लाभ में जमा कर दी जाती है. ऋण सरकार नहीं, बैंक बट्टे-खाते में डालते हैं.

इसके बरक्स किसानों और छोटे रोजी-रोजगार के ऋण हैं. किसानों और छोटे रोजगारियों के समक्ष आ पड़ी आपदाओं और अन्य वास्तविक दिक्कतों को ध्यान में रखते हुए सरकारें राजनीतिक तौर पर निर्णय करते हुए ऋण माफ किया करती हैं. अब तक दो बड़ी ऋण माफी एवं राहत योजनाएं लागू की गयी हैं- वर्ष 1990 में कृषि एवं ग्रामीण ऋण राहत योजना और वर्ष 2008 में कृषि ऋण माफी एवं ऋण राहत योजना. इसके अतिरिक्त स्थानीय स्तर पर विभिन्न आपदाओं और संकट के कारण राज्यों द्वारा समय-समय पर ऋण माफी की योजनाएं लागू की गयी हैं.

इन योजनाओं में माफ किये गये ऋण की गणना की जाती है, तय की गयी राशि बैंक लाभार्थियों के खाते में जमा कर सरकार से उक्त राशि की प्रतिपूर्ति का दावा करते हैं. इस प्रकार माफ किये गये ऋण शुद्ध ऋण माफी है, न कि वसूल न हो पा रहे कर्जों को बट्टे खाते में डालना. वर्ष 2008 की योजना के अंतर्गत मार्च 2012 तक केंद्र सरकार ने बैंकों को 52,520 करोड़ रुपये की प्रतिपूर्ति की थी. वर्ष 1990 की योजना में लगभग 6,000 करोड़ रुपये के ऋण की माफी या राहत दी गयी थी.

बैंकों द्वारा बट्टे खाते में डाले गये ऋण या सरकार द्वारा माफ किये गये ऋण दोनों से जुड़ी हुईं समस्याएं अलग-अलग हैं. बट्टे खाते में डाले गये ऋण की वसूली बहुत कठिन होती है. इन कर्जों को देख कर ही लोग मजाक उड़ाते हैं. इन ऋणों का वसूल न हो पाना ऋण लेनदेन के अनुशासन के रास्ते में एक बहुत बड़ा अड़ंगा है, जिसे बैंकिंग टर्मिनोलॉजी में ‘मोरल हजार्ड’ कहते हैं. छोटे उद्यमी के मन में धारणा बैठ जाती है कि उसके साथ भेदभाव किया जा रहा है. हालांकि, हर बैंक के पास संकट में पड़े खेतिहर और उद्यमी को ऋण चुकाने में राहत देने की एक बोर्ड अनुमोदित नीति होती है.

उत्तर प्रदेश के हालिया चुनाव में एक बड़ी पार्टी ने चुनाव घोषणापत्र में किसानों के ऋण माफी का वादा किया था. इधर चुनाव परिणाम आये ही थे कि एक बड़े बैंक के अध्यक्ष ने इन ऋणों को माफ करने की प्रवृत्ति के खिलाफ बयान जारी कर दिया. सही है कि ऋण माफी की ऐसी घोषणाएं राजनीतिक लाभ के लिए होती हैं, लेकिन ऐसा कहना समस्या का सरलीकरण हो जायेगा. उदारीकरण के दौरान खेती की लगातार अवहेलना हुई है. खेती किसी आपदा और संकट को पार पाने में असमर्थ है. कृषि बीमा भी खेती के नुकसानों की भरपाई करने में सक्षम नहीं है. इसके बाद अगर कोई रास्ता बचता है, तो वह है सरकार द्वारा ऋण माफी.

वसूल न होनेवाला ऋण बैंक, समाज और अर्थव्यवस्था पर भार है. वसूली कानून ऐसा हो कि छोटे उद्यमी ठगा न महसूस करें. व्यवसाय करने का वातावरण पारदर्शी और सहयोग प्रदान करनेवाला हो. किसान को भी ऋण-माफी न देनी पड़े, इसके लिए खेती को लाभदायक बनाया जाये. ऋण लेनदेन का अनुशासन बनाये रखना सभी पक्षों की सम्मिलित जिम्मेवारी है.

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