तुममें भी मैं हूं

डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार एक शब्द है ‘गुटका’. इस शब्द से मैं पहले किसी के ‘गुट का’ अर्थ समझता था- वह आदमी, जो किसी के गुट का है. जो केवल आदमी नहीं है, बल्कि किसी के गुट का आदमी है, और इसलिए गुटका है. ‘गुटका’ कोई और भी अर्थ रखता है, यह मैंने नब्बे […]

By Prabhat Khabar Print Desk | March 24, 2017 6:10 AM
डॉ सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
एक शब्द है ‘गुटका’. इस शब्द से मैं पहले किसी के ‘गुट का’ अर्थ समझता था- वह आदमी, जो किसी के गुट का है. जो केवल आदमी नहीं है, बल्कि किसी के गुट का आदमी है, और इसलिए गुटका है. ‘गुटका’ कोई और भी अर्थ रखता है, यह मैंने नब्बे के दशक में तब जाना, जब मेरा दिल्ली से कानपुर तबादला हो गया. मौत की तरह अखिल भारतीय नौकरी में तबादले का भी एक दिन मुअय्यन होने के बावजूद अधिकारियों को उसके डर से रातभर नींद नहीं आती, जिसकी कमी वे बेचारे दफ्तर में सोकर पूरी करते हैं.
अलबत्ता वे विभाग के किसी जटिल मुद्दे पर गहन चिंतन-मनन में डूबे हुए की-सी मुद्रा बना कर इस तरह सोते हैं कि दूसरों को पता न चल पाये कि वे सो रहे हैं. दूसरों को हालांकि इसका पता चल जाता है, किंतु वे उन्हें टोकते नहीं, क्योंकि एक तो सोनेवाले को टोकना अमानवीय समझा जाता है, और दूसरे, थोड़ी देर बाद उन्हें खुद भी इसी तरह सोना होता है.
अत्यंत आवश्यक होने पर ही, जैसे कि बड़े अधिकारी द्वारा तलब कर लिये जाने पर, उसे ‘सोना है तो जाग जाओ’ जैसी चेतावनी देकर जगाया जाता है.
नौकरी में तबादला अवश्यंभावी होने के बावजूद अधिकारी उसके लिए तैयार नहीं रहते और इसलिए जब वह एकदम सिर पर आ पड़ता है, तो उनमें से कुछ को लकवा मार जाता है, तो कुछ को हार्ट-अटैक भी आ जाता है. कुछ अधिकारी इन बीमारियों के आधार पर तबादला रुकवाने के लिए स्वयं भी उन्हें गले लगा लेते हैं, जिसमें स्थानीय चिकित्सक उनके बड़े काम आते हैं. हर शहर में कुछ चिकित्सक ऐसे पाये जाते हैं, जिनकी कमाई बीमारी का इलाज करने के बजाय बीमारी का प्रमाणपत्र देने से होती है.
तबादला रुकने पर अधिकारियों की ये बीमारियां अपने-आप ठीक हो जाती हैं, तो न रुकने पर अधिकारी को मन मार कर ठीक होना पड़ता है और नयी जगह पर चले जाना पड़ता है. उस हालत में साथी लोग उसे तसल्ली देने के लिए उस शहर की किसी-न-किसी ऐसी विशेषता का बखान करते हैं, जिसके सहारे वह तबादले पर जाने का साहस जुटा लेता है.
मेरा भी जब कानपुर तबादला हुआ, तो मेरे मित्रों ने मुझे उत्साहित करने के लिए वहां की जो सबसे बड़ी विशेषता बतायी, वह यह थी कि वहां गुटका थूकने के लिए आदमी को कमरे से बाहर नहीं जाना पड़ता. वहां जाकर ही मैंने जाना कि गुटका लोगों का कितना प्रिय खाद्य पदार्थ है और किस तरह लोग उसे थूकने के लिए कमरे से बाहर जाना तो दूर, सीट से उठना भी जरूरी नहीं समझते, बैठे-बैठे ही कोनों में पीक फेंक कर फारिग हो लेते हैं.
पूरे दफ्तर की दीवारें सुंदर भित्ति-चित्रों कानजारा पेश करती थीं. गुटका खानेवाले जाने-अनजाने पीक की पिचकारियों से ऐसे-ऐसे अद्भुत चित्र दीवारों पर बना डालते थे, जो दक्ष-से-दक्ष चित्रकार अपनी कूची से कभी नहीं बना सकता, बशर्ते वह भी गुटका न खाता हो और कूची के साथ-साथ पीक से भी उन चित्रों में रंग न भरता हो. भोपाल के नजदीक स्थित पुरापाषाणकालीन भीमबेटका की गुफाओं के शैल-चित्र भी इन भित्ति-चित्रों के सामने फीके थे! ताज्जुब नहीं कि उन गुफाओं में चित्र बनानेवाले आदिमानव भी गुटके के शौकीन रहे हों.
ऐसे में, जबकि एक विज्ञापन के अनुसार गुटका आदमी के तन-मन में ‘तुममें भी मैं हूं’ बन कर घुस चुका है, उत्तर प्रदेश के सरकारी दफ्तरों में गुटका खाने पर प्रतिबंध लगाना कहां तक श्रेयस्कर है? इससे प्रदेश के प्रतिभाशाली भित्ति चित्रकार कितने हतोत्साहित होंगे, और दूसरे प्रदेशों से यहां तबादला होने पर अधिकारियों का उनके साथी क्या कह कर उत्साह बढ़ायेंगे?

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