यह पब्लिक है, सब जानती है

विश्वनाथ सचदेव वरिष्ठ पत्रकार किसी चैनल पर एक कार्यक्रम में कपिल शर्मा दर्शकों को हंसते-हंसाते रहने की सलाह देते हैं और अपने साथियों की विदूषकी गतिविधियों से हंसाते भी हैं. इस शो का एक पात्र है डाॅ मशहूर गुलाटी, जो अपनी बे-सिर पैर की बातों-हरकतों से खूब हंसाता है. वह अपनी डिग्रियों के नाम पर […]

By Prabhat Khabar Print Desk | February 15, 2017 11:03 PM
विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
किसी चैनल पर एक कार्यक्रम में कपिल शर्मा दर्शकों को हंसते-हंसाते रहने की सलाह देते हैं और अपने साथियों की विदूषकी गतिविधियों से हंसाते भी हैं. इस शो का एक पात्र है डाॅ मशहूर गुलाटी, जो अपनी बे-सिर पैर की बातों-हरकतों से खूब हंसाता है. वह अपनी डिग्रियों के नाम पर कुछ भी बोलता है, जैसे ‘मैं डाॅ मशहरू गुलाटी एमबीकेएच.’ जब इस डिग्री का अर्थ पूछा जाता है, तो वह बताता है- ‘एमबीकेएच यानी मैं बकवास करता हूं.’
गुलाटी की अदा को देख-सुन कर अनायास हंसी आ जाती है. कुछ ऐसा ही आजकल नेताओं के भाषण सुन कर होता है. राज्यों में चल रहे चुनावों के प्रचार-कार्य के दौरान हमारे नेताओं ने जम कर गुलाटी जैसी बातें की हैं. ताजा उदाहरण एससीएएम यानी ‘स्कैम’ का है. इस शब्द का मलतब घोटाला होता है. प्रधानमंत्री मोदी ने एस को समाजवादी पार्टी, सी को कांग्रेस, ए को अखिलेश और एम को मायावती बताते हुए उत्तर प्रदेश को इन चारों से बचाने का आह्वान किया, तो राहुल गांधी ने एस को सर्विस (सेवा), सी को करेज (साहस), ए को एबिलिटी (योग्यता) और एम को मोडेस्टी (विनम्रता) बताया. वहीं अखिलेश यादव स्कैम का मतलब ‘सेव कंट्री फ्रॉम अमित शाह एंड मोदी’ बता रहे हैं.
इतने बड़े-बड़े नेताओं की इस हरकत को सिर्फ बचकाना ही कहा जा सकता है. बचपन में हम ऐसे खेल खेला करते थे. अब यह खेल हमारे राजनेताओं ने हथिया लिया है. नहीं, खेल नहीं हथियाया, राजनेताओं ने समूची राजनीति को बचकाना बना दिया है.
पीड़ा होती है यह देख कर कि हमारी राजनीति सरोकार-विहीन होती जा रही है. मुद्दों पर कोई बात नहीं होती. सिद्धांत, मूल्य, आदर्श तो खो ही गये हैं. अब राजनीति का मतलब सिर्फ जुमलेबाजी रह गया है, अवसरवादिता रह गया है. अब सरोकार का मतलब सिर्फ सत्ता हथियाना है. सत्ता भी सेवा के लिए नहीं, भोग के लिए.
पिछले आम चुनाव में उठाने के नाम पर भले ही भ्रष्टाचार और विकास के मुद्दे उठाये गये हों और मतदाता ने भी शायद वोट देते समय इन मुद्दों पर गौर किया होगा, लेकिन हमारे नेताओं को यह कहने में कतई शर्म नहीं आयी थी कि चुनावों में जुमलेबाजी करनी ही पड़ती है. विदेशों में पड़े कालेधन को लाकर देश की जनता में बांटनेवाला जुमला तो आज भी सुनाई पड़ जाता है- फर्क सिर्फ इतना है कि तब नरेंद्र मोदी ने यह जुमला उछाला था और अब राहुल गांधी उछाल रहे हैं. तब कालाधन बांटने की बात कही गयी थी, अब पूछा जा रहा है वह पैसा बंटा क्यों नहीं.
नेता एक-दूसरे से चाहे जो कुछ पूछने का नाटक करते रहें, पर देश का नागरिक अपने नेताओं से पूरी संजीदगी के साथ यह पूछ रहा है कि उन्होंने राजनीति को मजाक क्यों बना दिया है?
सत्ता और जुमलों तक क्यों सिमट गयी है हमारी राजनीति? जनता ‘स्कैम’ का अर्थ अच्छी तरह जानती है, नेता उसे मनमाने अर्थ देकर बहकाने की कोशिश कृपया न करें. जनतंत्र में राजनीति एक गंभीर मुद्दा है, जिसका जन-जीवन से सीधा रिश्ता होता है. हमारे वर्तमान और हमारे भविष्य को सीधा प्रभावित करती है हमारी राजनीति. जनतंत्र में राजनीति का एक ही मतलब होता है- जन के भविष्य को संवारने का माध्यम. लेकिन, अब ‘स्कैम’ बन कर रह गयी है समूची राजनीति. यह दुर्भाग्य है कि आज कोई भी राजनीतिक दल ईमानदारी से यह दावा नहीं कर सकता कि वह सिद्धांतों-मूल्यों-आदर्शों की राजनीति में विश्वास करता है.
राजनीति सत्ता का एक विदूषकी खेल बन कर रह गयी है, जिसमें हर विदूषक स्वयं को सबसे बड़ा खिलाड़ी समझता है और यह मानता है कि ‘यह पब्लिक कुछ नहीं जानती है’. वरना यह कैसे संभव है कि चुनाव-दर-चुनाव हमारे नेता वादों और दावों की झड़ी लगा कर मतदाता को अपनी मुट्ठी में होने का भ्रम पाल लेते हैं?
कभी तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि आप जो कह रहे हैं, उसका मतलब भी समझते हैं? आप जो कर रहे हैं, उसके परिणामों से परिचित हैं? नेता जब भी चाहता है, अपनी भाषा बदल लेता है, अपनी टोपी बदल लेता है. क्या उनसे पूछा नहीं जाना चाहिए कि रातोंरात विचार कैसे बदल जाते हैं. त्रासदी यह भी है कि दाग सबके दामन पर है.
एक दिन अचानक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की अध्यक्ष को लगता है कि वह ‘गलत दल’ में हैं और उनके गले में कांग्रेसी झंडे की जगह भगवा पट्टा डाल दिया जाता है. यह अवसरवादी राजनीति का उदाहरण नहीं है, यह हमारी समूची राजनीति के उस चेहरे का नमूना है, जिसमें सिद्धांतों और मूल्यों के लिए कोई जगह नहीं होती. राजनेताओं और ‘राजनीति’ को अपनी किसी गलती के लिए न पश्चाताप होता है, न शर्म आती है. वे यह भी मान कर चलते हैं कि मतदाता मूर्ख बनाने के लिए होते हैं.
ये स्थितियां जनतंत्र के लिए और जनतंत्र में विश्वास करनेवाले नागरिक के लिए खतरनाक हैं. इसलिए दायित्व नागरिक का ही बनता है कि वह चेते. उसे ही कहना होगा कि मतदाता को मूर्ख समझने का अधिकार किसी को नहीं है. आज राजनीति के विदूषकों की कथनी-करनी पर हंसने की नहीं, उन्हें यह एहसास कराने की आवश्यकता है कि ‘यह पब्लिक है, सब जानती है!’

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