एक नागरिक की जवाबदेही

रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार एक कथन है- ‘एक नागरिक की जवाबदेही यही होती है कि जो कुछ भी उसके आस-पास गलत हो रहा है, वह उस पर लोकतांत्रिक ढंग से अपना हस्तक्षेप दर्ज करे.’ यह कथन प्रमुख सामाजिक, मानवाधिकार कार्यकर्ता बेला भाटिया का है, जो उन्होंने कुछ दिन पहले एक साक्षात्कार में कहा है. वर्ष 2005 […]

By Prabhat Khabar Print Desk | February 13, 2017 6:28 AM
रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
एक कथन है- ‘एक नागरिक की जवाबदेही यही होती है कि जो कुछ भी उसके आस-पास गलत हो रहा है, वह उस पर लोकतांत्रिक ढंग से अपना हस्तक्षेप दर्ज करे.’ यह कथन प्रमुख सामाजिक, मानवाधिकार कार्यकर्ता बेला भाटिया का है, जो उन्होंने कुछ दिन पहले एक साक्षात्कार में कहा है. वर्ष 2005 से बस्तर अधिक अशांत है. इसी वर्ष छत्तीसगढ़ सरकार ने कई उद्योगपतियों-कॉरपोरेटरों के साथ एमओयू साइन किया था. बस्तर डिवीजन के सात जिलों में से नारायणपुर, बीजापुर, कोंडागांव और सुकमा जिले 2005 के बाद बने.
छत्तीसगढ़ विधानसभा द्वारा दिसंबर 2005 में पारित छत्तीसगढ़ विशेष जनसुरक्षा एक्ट 12 अप्रैल, 2006 से लागू है. इसी एक्ट के तहत 14 मई, 2007 को विनायक सेन को गिरफ्तार किया गया था. 2005 से ही सलवा-जुडूम आरंभ हुआ, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 5 जुलाई, 2011 को अवैध और असंवैधानिक घोषित करते हुए उसे भंग करने का आदेश दिया. वर्तमान में बस्तर में लोकतांत्रिक मूल्य कम बचे हैं. बेला भाटिया इन मूल्यों की रक्षा के साथ काम करने पर बल देती हैं. जब भी कभी संविधान और नियमों-कानूनों की धज्जियां उड़ती है, तो उसके परिणाम बेहद भयंकर होते हैं.
आज प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह सामाजिक-राष्ट्रीय दायित्व है कि वह लोकतांत्रिक देश भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करे. पुलिस के सामने 22 जनवरी, 2017 को बेला भाटिया के जगदलपुर के परपा गांव के घर पर बदमाशों ने न केवल हमला किया, उन्हें बस्तर छोड़ देने की धमकी भी दी गयी थी. पुलिस ने ही इसके पहले सोनी सोरी और मनीष कुंजाम के साथ उनका पुतला जलाया था. बेला भाटिया का संघर्ष छत्तीसगढ़ सरकार की आदिवासी विरोधी नीतियों से है. सामाजिक कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बस्तर के हालात पर रिसर्च करनेवालों को धमकाने, डराने और बस्तर छोड़ देने की घटनाएं लगातार जारी हैं.
जगदलपुर में जिस सामाजिक एकता मंच का गठन किया गया था, उस पर पुलिस का वरदहस्त था. इस मंच को लेकर सुप्रीम कोट में एक याचिका दायर की गयी थी. बाद में इस मंच को भंग कर दिया गया और पिछले वर्ष ही ‘अग्नि (एक्शन ग्रुप फॉर इंटेग्रिटी)’ नाम से एक नयी संस्था बनायी गयी, जिस पर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने कई आरोप लगाये हैं. सितंबर, 2016 में अग्नि की ललकार रैली में बेला भाटिया का मोबाइल और उनका सारा सामान लूटा गया था.
बस्तर में वैधानिक सवाल उठाना गुनाह है. या यूं कह लें कि ऐसा करना माओवादी होना है. वेबसाइट ‘स्क्रॉल’ की पत्रकार मालिनी सुब्रमण्यम को धमकियों के बाद बस्तर छोड़ना पड़ा. असंवैधानिक और अलाेकतांत्रिक गतिविधियों का शांतिपूर्ण विरोध वहां बर्दाश्त नहीं किया जाता. विडंबना यह है कि अग्नि संस्था अपने को ‘अखंड शांति और उन्नत भारत के निर्माण’ को अपना लक्ष्य घोषित करती है. इस संस्था से जुड़े लोगों ने बेला भाटिया के घर पर हमला किया. इसके पहले सामाजिक एकता मंच ‘लीगल एंड ग्रुप’ के महिला वकीलों को भी बस्तर छोड़ने को बाध्य किया गया. ये सारी घटनाएं हमारे लोकतंत्र के लिए सकारात्मक संदेश नहीं हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बस्तर में 24 हजार करोड़ की निवेश योजना की घोषणा के बाद ही वहां सलवा-जुडुम-2 (विकास संघर्ष समिति) की घोषणा की गयी है. पत्रकार वकील, रिसर्चर, राजनीतिक नेता, सामाजिक और मानवाधिकार सक्रियतावादी ही वहां की सच्ची खबरें बाहर लाते हैं. नंदिनी सुंदर (दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर और द बर्निंग फॉरेस्ट की लेखिका) के अनुसार, प्रतिबंधित संगठन (माओवादी) पर रिसर्च करना कहीं अधिक दुष्कर है.
बेला भाटिया और ज्यां द्रेज के कामों को न जाननेवाले इन दोनों पर बेतुका आरोप मढ़ते हैं. दोनों पर नक्सली होने के आरोप लगाये गये थे. पोस्ट ट्रूथ (झूठ) के इस दौर में बेतुके आरोप मढ़ना आम बात है.
ज्यां द्रेज, अमर्त्य सेन के निकटवर्ती सहकर्मी हैं. इनका ज्यादातर कार्य भूख, गरीबी, शिक्षा और स्वास्थ्य से संबंधित है. ब्रिटिश अर्थशास्त्री निकोलन स्टर्न और नोबेल पुरस्कार अर्थशास्त्री अगस डेटन के साथ उनके कई कार्य हैं. ज्यां द्रेज ने लिखा है कि अगर वे नक्सली हैं, तो अमर्त्य सेन सहित इन सभी अर्थशास्त्रियों को जेल भेजना चाहिए. ज्यां द्रेज और बेला भाटिया लोकतांत्रिक साधनाें के जरिये सभी प्रकार के अन्याय के विरुद्ध संघर्ष के पक्षधर है. ज्यां द्रेज भारतीय नागरिक हैं. उन्हें विदेशी दलाल भी कहा गया. वे 37 वर्षों से भारत में हैं. भारत से उनका प्यार किसी भी भारतवासी से जरा भी कम नहीं है.
यह समय प्रत्येक नागरिक को अपनी जवाबदेही तय करने का है. मुक्तिबोध के जन्मशती वर्ष में हमें बार-बार इस सवाल से टकराना होगा- ‘तय करो किस आेर हो तुम?’

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