हिंदी उपन्यास में पॉलिटिक्स

प्रभात रंजन कथाकार मुजफ्फरपुर वाले रघुवंश चच्चा मिल गये. अक्सर दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले में आ जाते हैं. कहने लगे कि जब पहली बार प्रगति मैदान में 1972 में एशिया-72 का मेला लगा था, तब से ही प्रगति मैदान के मेलों में आ रहे हैं. पहले विश्व पुस्तक मेला दो साल में एक बार […]

By Prabhat Khabar Print Desk | January 19, 2017 6:12 AM
प्रभात रंजन
कथाकार
मुजफ्फरपुर वाले रघुवंश चच्चा मिल गये. अक्सर दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले में आ जाते हैं. कहने लगे कि जब पहली बार प्रगति मैदान में 1972 में एशिया-72 का मेला लगा था, तब से ही प्रगति मैदान के मेलों में आ रहे हैं. पहले विश्व पुस्तक मेला दो साल में एक बार होता था, तो हर बार आते थे, लेकिन अब हर साल होने लगा है. हर साल आना संभव नहीं हो पाता. मौका मिलता है तो आ जाते हैं. जाते-जाते एक सवाल छोड़ गये.
बोले कि पिछले कुछ सालों में देश में राजनीति को लेकर इतना उठा-पटक हो रहा है, इतना बदलाव हो रहा है, लेकिन हिंदी में एक भी राजनीतिक उपन्यास क्यों नहीं लिखा जा रहा है? तुम हिंदी के लेखक लोग प्रेमचंद-प्रेमचंद तो बहुत खेलते हो, लेकिन उनके उस अमर वाक्य को लगता है भूल गये हो- ‘साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलनेवाली सच्चाई नहीं, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलनेवाली सच्चाई है.’ चच्चा पान की दुकान खोजने निकल लिये और मैं सोचने लगा कि आखिर क्या बात है कि हिंदी में राजनीतिक उपन्यास नहीं लिखे जा रहे हैं?
इतना हल्ला है कि हिंदी बढ़ रही है, हिंदी में किताबों की बिक्री बढ़ रही है, हिंदी के लेखकों की पहचान बढ़ रही है, लेकिन आज राजनीति को विषय बना कर हिंदी में उपन्यास नहीं लिखे जा रहे. यह दिलचस्प बात है कि प्रेमचंद, रेणु के बाद हिंदी में बहुत बड़े फलक पर राजनीतिक उपन्यास कम लिखे गये हैं.
प्रेमचंद के बाद हिंदी में जिस लेखक की हिंदी में सबसे विराट उपस्थिति रही, वे अज्ञेय थे. हिंदी साहित्य की हर विधा में उन्होंने उल्लेखनीय लेखन किया. आजादी की लड़ाई में उनका संबंध क्रांतिकारी संगठन से था. लेकिन, अपने लेखन में वे राजनीति से विमुख रहे. उनका यह मानना था कि लेखक को राजनीति से दूर रहना चाहिए. इसके विपरीत निर्मल वर्मा राजनीति से दूर रहते आये, लेकिन उन्होंने ‘रात का रिपोर्टर’ उपन्यास लिखा, जिसमें इमरजेंसी के दिनों की अनुगूंज है.
इसके विपरीत, हिंदी कविता का प्रधान स्वर राजनीतिक रहा है. हिंदी में उसी कवि की बड़ी पहचान बनती है, जिसकी कविता का मुहावरा राजनीतिक होता है.
यहां तक कि मूल रूप से रूमानी मानी जानेवाली शायरी की विधा में भी हिंदी में जिन शायरों की बड़ी पहचान बनी, वे राजनीतिक मुहावरे वाले शायर थे. चाहे वे दुष्यंत कुमार रहे हों या अदम गोंडवी. आज भी हिंदी कविता में वर्चस्व राजनीतिक कविता का ही है, जबकि उपन्यासों-कहानियों में राजनीतिक विषयों को इतना कम उठाया जाता है कि उनको अपवादस्वरूप उंगलियों पर गिना जा सकता है.
रघुवंश चच्चा की ही बात याद आती है. पिछली बार जब वे मिले थे, तो उनके हाथ में ओरहान पामुक का उपन्यास ‘स्नो’ था, हिंदी अनुवाद में. देखते ही कहने लगे कि यह देखो इस छोटे से उपन्यास में इस लेखक ने तुर्की की कट्टरतावादी राजनीति को कहानी में कितनी बारीकी से पिरोया है.
कहानी जिस बर्फीले इलाके की है, उसको पढ़ते हुए लगता है कि अपने यहां के कश्मीर की कहानी पढ़ रहे हैं. लेकिन, कभी इसके ऊपर सोचा है कि हिंदी में कश्मीर को लेकर आजादी के बाद के दौर में रूमानी कहानियां तो खूब लिखी गयी हैं, लेकिन वहां के राजनीतिक तनावों को लेकर हिंदी में एक ठो उपन्यास तक नहीं लिखा गया. कहीं इसका कारण यह तो नहीं है कि हिंदी के लेखक पाठक वर्ग बनाने के फेर में पड़े रहते हैं, इसीलिए अपनी पॉलिटिक्स को जाहिर नहीं करते. तभी तो मुक्तिबोध जैसे कवि सबसे पूछते थे- पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है? पूछने का मन करता है- हिंदी उपन्यास, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?

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