हाशिये पर मुलायम

करीब तीन दशकों तक देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की राजनीति के केंद्र में बने रहनेवाले मुलायम सिंह यादव ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन वे अपनी ही बनायी पार्टी से अपने ही बेटे द्वारा किनारे लगा दिये जायेंगे. यह अलग बहस का मुद्दा है कि समाजवादी पार्टी […]

By Prabhat Khabar Print Desk | January 18, 2017 6:19 AM
करीब तीन दशकों तक देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की राजनीति के केंद्र में बने रहनेवाले मुलायम सिंह यादव ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन वे अपनी ही बनायी पार्टी से अपने ही बेटे द्वारा किनारे लगा दिये जायेंगे. यह अलग बहस का मुद्दा है कि समाजवादी पार्टी पर से अपना नियंत्रण खोने के लिए खुद मुलायम सिंह कितने जिम्मेवार हैं, या फिर वे अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी अखिलेश यादव की महत्वाकांक्षाओं से परास्त हुए हैं.
चर्चा इस पर भी हो रही है कि पार्टी और परिवार में छह महीने से चल रहे अंदरूनी उठा-पटक के विभिन्न कारण और आयाम क्या-क्या हैं. बहरहाल, इस पर विचार भी जरूरी है कि राज्य और केंद्र की सियासत में मजबूत दखल रखनेवाले देश का कद्दावर बुजुर्ग नेता आखिर इस चुनाव में बेमानी कैसे हो गया. ऐसे हाशिये पर चले जाने का एक मतलब यह भी है कि अब उनकी राष्ट्रीय आकांक्षाओं को भी विराम लग गया है. हालांकि, वे अब भी अपना दावं खेलने की पूरी कोशिश जरूर कर सकते हैं, पर सपा पर रामगोपाल और अखिलेश की चाचा-भतीजे की जोड़ी पूरी तरह काबिज हो चुकी है तथा पार्टी के अदने समर्थक से लेकर बड़े-बड़े नेता मुलायम सिंह से किनारा कर चुके हैं.
जनता दल के दिनों से लेकर कुछ समय पहले तक केंद्र और राज्य में मुलायम ने जोड़-तोड़ और पैंतरों से अपनी साइकिल बखूबी दौड़ायी तथा इस यात्रा में उन्होंने भरोसे को बहुत ज्यादा मान भी नहीं दिया. पुराने साथियों से दूरी बना लेना, वादे कर पलट जाना और सत्ता के लिए करवटें बदलना मुलायम की राजनीति के चिर-परिचित अंदाज रहे हैं. कमांडर भदौरिया, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, अजीत सिंह जैसे लोगों का साथ छोड़ने में उन्हें हिचक नहीं हुई. मायावती के साथ गंठबंधन किया, तो उन पर हमला भी करा दिया.
वर्चस्व बढ़ाने की कवायद में दागी लोगों का साथ भी लिया और फिर रास्ता भी बदल लिया. आश्चर्य नहीं है कि आज वे अखिलेश पर ही अल्पसंख्यकों का अहित करने या फिर रामगोपाल पर भाजपा से सांठ-गांठ करने का आरोप लगा रहे हैं. यह एक बुजुर्ग नेता की खीझ नहीं है, बल्कि अखाड़े से बाहर धकेले जाते मंझे हुए पहलवान का एक हताश दावं है.
बहरहाल, बड़ा जनाधार रखनेवाले सत्ताधारी पार्टी के सबसे बड़े नेता के अप्रासंगिक होने का यह दृश्य स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास का बेहद दिलचस्प अध्याय है. उत्तर प्रदेश की राजनीति की भावी दिशा तो आगामी दिनों में जनता तय करेगी, पर यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मुलायम सिंह चुप नहीं बैठेंगे और अपनी मौजूदगी का अहसास कराने के लिए कुछ जरूर करेंगे. अगले कुछ दिन भी खासा दिलचस्प हो सकते हैं.

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