सबका विकास हो

उदारीकरण के बाद के सालों में खासकर यह रवैया देखा गया है कि सरकारें खुद को बेहतर बताने के लिए आर्थिक वृद्धि दर के तर्क का खूब इस्तेमाल करने लगी हैं. यह तर्क धीरे-धीरे सरकारों की काबिलियत साबित करने का एकमात्र पैमाना बनता जा रहा है और इसे इतनी ज्यादा प्रतिष्ठा मिल चुकी है कि […]

By Prabhat Khabar Print Desk | January 18, 2017 6:18 AM
उदारीकरण के बाद के सालों में खासकर यह रवैया देखा गया है कि सरकारें खुद को बेहतर बताने के लिए आर्थिक वृद्धि दर के तर्क का खूब इस्तेमाल करने लगी हैं. यह तर्क धीरे-धीरे सरकारों की काबिलियत साबित करने का एकमात्र पैमाना बनता जा रहा है और इसे इतनी ज्यादा प्रतिष्ठा मिल चुकी है कि उस पर सवाल भी नहीं उठाया जाता. हम अक्सर यह पूछना भूल जाते हैं कि आर्थिक बढ़वार में समाज के सभी तबकों की भागीदारी कितनी है.
क्या जिस आर्थिक वृद्धि का ढोल पीटा जा रहा है, वह सभी के लिए समान रूप से फायदेमंद साबित हो रहा है, क्या समाज में सभी को अपनी बेहतरी के अवसर मिल रहे हैं और क्या आर्थिक विकास इतना टिकाऊ हो सकता है कि भावी पीढ़ियां भी उसके फायदे में समान रूप से भागीदार हो सकें? वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की हालिया रिपोर्ट के तथ्य बताते हैं कि समावेशी विकास के लिहाज से भारत विकासशील देशों के बीच बहुत पीछे है. इस अध्ययन में 79 देशों की सूची में भारत 60वें स्थान पर है और चीन के साथ नेपाल, बांग्लादेश तथा पाकिस्तान जैसे पड़ोसी मुल्क भी समावेशी विकास के मामले में भारत से आगे खड़े हैं. आर्थिक विकास के मामले में बेशक भारत ब्रिक्स देशों में रूस और ब्राजील के साथ खड़ा है, लेकिन इस रिपोर्ट में रूस और ब्राजील समावेशी विकास के मामले में भारत से बहुत आगे दिखते हैं.
ऑक्सफैम की रिपोर्ट ने बताया है कि देश के 57 अमीरों के पास 91 करोड़ लोगों के बराबर संपत्ति है. जब विषमता का स्तर ऐसा हो और गरीबी रेखा तय करने के लिए गांव में 32 रुपये और शहर में 47 रुपये रोजाना खर्च की सीमा हो, तो यह समझ लिया जाना चाहिए कि विकास की दशा और दिशा पर गंभीर पुनर्विचार की जरूरत है. एक तरफ कल्याण कार्यक्रमों के बजट में कमी की जा रही है, तो दूसरी तरफ आर्थिक विकास की कमाई कुछ लोगों के पास केंद्रित होती जा रही है.
पर्यावरण के नुकसान, प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के खराब नतीजों को भी गरीब जनता को ही भुगतना पड़ रहा है. समावेशी विकास का अर्थ है जाति, वर्ग, धर्म, लिंग, भाषा आदि के भेदभाव को परे ढकेलते हुए आर्थिक वृद्धि में सबकी भागीदारी. यह तभी संभव है जब सरकार लोगों के लिए ऐसे अवसर तैयार करे कि वे खुद से रोजगार और आमदनी हासिल करने के काबिल हो सकें. आर्थिक वृद्धि का चेहरा ज्यादा से ज्यादा मानवीय हो सके, इसके लिए सरकार को चाहिए कि वह भोजन, वस्त्र, आवास, सेहत, शिक्षा जैसे सामाजिक मद में सामाजिक न्याय को ध्यान में रखते हुए समुचित खर्च करे.

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