आभासी दुनिया में अंचल

गिरींद्र नाथ झा ब्लॉगर एवं किसान जब भी सोशल मीडिया में गांव की दुनिया की बातें करता हूं, तो लगता है नदी की तरह बहता जा रहा हूं. इस बहने की प्रक्रिया में फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म पर एक से बढ़ कर एक स्टेटस पढ़ने को मिलते हैं, जिसमें अंचल समाया रहता है. कोई अंचल की […]

By Prabhat Khabar Print Desk | January 17, 2017 6:30 AM
गिरींद्र नाथ झा
ब्लॉगर एवं किसान
जब भी सोशल मीडिया में गांव की दुनिया की बातें करता हूं, तो लगता है नदी की तरह बहता जा रहा हूं. इस बहने की प्रक्रिया में फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म पर एक से बढ़ कर एक स्टेटस पढ़ने को मिलते हैं, जिसमें अंचल समाया रहता है. कोई अंचल की लोककथाओं की बातें करता है, तो किसी में ग्राम्य जीवन के गीतों की लय मिल जाती है. हाल ही चिन्मयानंद सिंह का एक पोस्ट पढ़ने को मिला, जिसमें उन्होंने नदी से अपने प्रेम का जिक्र किया था. चिन्मय लिखते हैं- ‘आजकल नदियों से प्यार पनप रहा है. सोचता हूं, अपने पास की बहनेवाली सौरा नदी के तीरे घर बना कर वहीं पकाऊं-खाऊं. वहीं कुछ रास्ता मिले अपने जीवन का. फिर एक परिचय लेकर इस समाज के सामने आऊं. सोचता हूं बस, ऐसा होता संभव नहीं दिखता.’
चिन्मय के इस पोस्ट पर अंचल से अनुराग रखनेवाले कई लोगों की टिप्पणियां पढ़ने को मिलती हैं. अंचल में रहते हुए नदी-जंगल-जमीन से अपनापा बढ़ता है, लेकिन आप उस अपनापे को जीवन में किस तरह उतारते हैं, यह मायने रखता है. आह! ग्राम्यजीवन की बातें करते हुए हम अक्सर जो कथाएं बांचते आये हैं, उनमें किसानी कर रहे लोगों की परेशानियों का जिक्र बहुत कम करते हैं. सोशल मीडिया पर गांव को लेकर जो कुछ लिखा जा रहा है, उसमें अच्छी बात यह है कि ग्रामीण परिवेश के हर एक पहलू पर लोग बात कर रहे हैं.
तालाब की बात होगी, तो लोग यह भी कहेंगे कि पानी का स्तर कितना गिर रहा है. वृक्षारोपण की बात होती है, तो यह भी लिखा जा रहा है कि पुराने पेड़ लगातार काटे जा रहे हैं. यह अच्छा है कि सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म पर ग्राम्यजीवन के उलझते-सुलझते तारों को लोग सलीके से रख रहे हैं.
बदलते गांव की तस्वीर पर अब खुल कर लोगबाग लिख रहे हैं. गांव में जब बाहर का पैसा आ रहा है, उसके विभिन्न पक्षों को भी लिखा जा रहा है. दरअसल, गांव के वैसे लोग जो बाहर में काम करते हैं, वे समय पर अपने परिजनों को पैसे भेजते हैं. ट्रैक्टर पर राइस मशीन लेकर व्यापारी आता है और दरवाजे पर ही धान कूट कर चला जाता है. अब धान कूटवाने के लिए बहुत श्रम की जरूरत नहीं है, क्योंकि गांव में अब मजदूर बचे नहीं हैं. लोगों के कपड़े बदल गये हैं. जींस गांव-गांव में घुस गया है. गांव के इस बदले अंदाज को फेसबुक और ब्लॉग पर लोग लिख रहे हैं. अच्छा लगता है, जब उन बातों के बारे में सोशल मीडिया के अलग-अलग प्लेटफॉर्म पर पढ़ने को मिलता है, जिन बातों को पहले केवल गांव जाकर ही महसूस किया जाता था.
हाल ही में मैं गांव के कुछ युवकों के साथ बैठा था. वहां भी सभी फेसबुक आदि की बात कर रहे थे. हम सब बैठे थे, तभी एक नौजवान आया और मुझसे हाथ मिलाते हुए इ-मेल आइडी मांग बैठा. मुझे लगा कि युवक कोलकाता या दिल्ली में रहता होगा, लेकिन उसने बताया कि वह गांव में ही रहता है, मगर रात में फेसबुक करता है.
सोशल मीडिया के जरिये ग्राम्यजीवन की कुछ चुनिंदा पोस्ट पढ़ने से पता चलता है कि कोई भी समय जड़ नहीं हो सकता. जो बदल रहा है, उसके पक्ष-विपक्ष में आप भले लंबा लिख लें, लेकिन इतना तो तय है कि वक्त के संग देहाती दुनिया में बड़े बदलाव दिखने लगे हैं.
कुछ दिन पहले ट्विटर पर एक ट्वीट पढ़ने को मिला था, जिसमें इस बात का जिक्र था कि बिजली के कारण गांव में कई तरह के बदलाव आ रहे हैं, जो मीडिया में दर्ज नहीं किये जा रहे हैं. लेकिन, सोशल मीडिया ने उन बदलावों को लिख डाला है. यही वजह है कि आभासी दुनिया जब अंचल से संवाद स्थापित करती है, तो मेरा मन खुश हो जाता है.

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