मुबारकबाद की राजनीति

नासिरुद्दीन वरिष्ठ पत्रकार जब भी कोई बड़ा दिन आता है, तुरंत ही उसे मनाने न मनाने का ‘राष्ट्रवादी’, ‘सांस्कृतिक’ या ‘धार्मिक’ विमर्श भी शुरू हो जाता है. पिछले कुछ वर्षों में यह विमर्श तेज हो गया है. इस विमर्श ने कुछ दिया हो या न दिया हो, अमृत तो नहीं ही दिया है. हां, इसने […]

By Prabhat Khabar Print Desk | January 13, 2017 1:01 AM
नासिरुद्दीन
वरिष्ठ पत्रकार
जब भी कोई बड़ा दिन आता है, तुरंत ही उसे मनाने न मनाने का ‘राष्ट्रवादी’, ‘सांस्कृतिक’ या ‘धार्मिक’ विमर्श भी शुरू हो जाता है. पिछले कुछ वर्षों में यह विमर्श तेज हो गया है. इस विमर्श ने कुछ दिया हो या न दिया हो, अमृत तो नहीं ही दिया है. हां, इसने हमारे भीतर कहीं छिपी नफरत को ज्यादा जगजाहिर किया है. पिछले दिनों दो अहम तारीखें गुजरी हैं. एक- 25 दिसंबर यानी क्रिसमस और दूसरी- एक जनवरी यानी नया साल. इन दोनों ही मौकों पर कुछ ऐसा दिखा, जो आमतौर पर दिखाई नहीं देना चाहिए.
मोहम्मद शामी और उनकी पार्टनर के कपड़े व फोटो से जुड़ा विवाद तो याद होगा. इसी दौरानएक और चीज हुई थी. क्रिसमस का मौका था. शामी ने क्रिसमस ट्री के साथ एक फोटो पोस्ट की और क्रिसमस की बधाई दी. इसके बाद कुछ बंदों ने शामी को बताना शुरू किया कि ‘मेरी क्रिसमस’ कहना हराम है. इसलाम विरोधी है. इसे नहीं कहना चाहिए. यह शर्मनाक है. ‘दूसरे’ के त्योहारों पर बधाई नहीं देनी चाहिए.
इसी दौरान 2009 के सिविल सेवा के टॉपर शाह फैसल ने अपने फेसबुक पेज पर लिखा कि कुछ दिनों पहले तक हमारे दोस्तों के फेसबुक पेज पर मेरी क्रिसमस, हैप्पी दीवाली, हैप्पी गुरुपर्व खूब दिखाई देते थे. तब कुछ लोगों ने कहा कि यह गैर-इसलामी है और हम मान गये. मेरे कुछ अच्छे दोस्तों ने भी मान लिया है कि हमें ऐसे मौकों पर मुबारकबाद देने से बचना चाहिए.
इस पोस्ट के बाद शाह फैसल को भी कुछ बंदों की वैसी ही नसीहत और ज्ञान मिला, जैसा कि शामी को मिला था. शाह फैसल को कहा गया कि सत्ता ने उन्हें अंधा बना दिया है. वे धर्म की राह से भटक गये हैं. अपनी बात के समर्थन में ऐसे बंदों ने जगह-जगह से कुछ-कुछ चीजें पोस्ट कीं. इस काम में डॉक्टर जाकिर नाइक के वीडियो का भी इस्तेमाल किया गया.
जिन लोगों ने क्रिसमस पर मुबारकबाद देने का विरोध किया था, उनमें से कई ने जाकिर नायक जैसे तर्क दिये. ऐसा इन दोनों के साथ ही नहीं हुआ है. कई लोगों के सोशल मीडिया विमर्श में ऐसी चीजें देखने को मिल सकती हैं. इसके बाद आया एक जनवरी यानी नया साल. सोशल मीडिया पर कुछ संदेश अवतरित हुए. जैसे- मैं मुसलमान हूं और मैं नया साल नहीं मनाता. यह इसलाम के खिलाफ है. इसके जरिये गैर-इसलामी चीजों को बढ़ावा दिया जाता है… ऐसे ख्याल कई लोगों के मैसेज बॉक्स में घूमते रहे.
अभी तक ऐसा ‘सांस्कृतिक-राष्ट्रवादी’ विमर्श ज्यादातर हिंदुत्ववादी खेमे के मार्फत दिखाई देता रहा है. शायद इसलिए भी कि वे कई मौकों पर ज्यादा उग्र दिखायी देते हैं. मगर, भारतीय मुसलमानों में छोटा सा ही सही, लेकिन एक तबका ऐसा पैदा हो रहा है, जो इसी तरह ‘सांस्कृतिक-धार्मिक’ दायरे में ही चीजों को देख रहा है और दूसरों को दिखाना चाहता है. यह तबका भी हर चीज को ‘अपना’ बनाम ‘पराया’ में बांट कर देखने की कोशिश कर रहा है. उन्हें जहनी खुराक भी मिल रही है. हालांकि, इस खुराक को मजहब का ताना-बाना पहना दिया गया है.
लेकिन, सवाल सिर्फ मुबारकबाद या बधाई देने-लेने का नहीं है. सवाल इससे बड़ा है. यानी भारत जैसे एक से ज्यादा तहजीब, जबान, मजहब, जाति, ख्याल वाले लोग एक-दूसरे के साथ कैसे रिश्ते में रहेंगे?
रिश्ता ही नहीं, बल्कि जिंदा कैसे रहेंगे? सांस कैसे लेंगे? इसलिए शायद शाह फैसल ने अपनी पोस्ट में सवाल पूछा है, अगर हम इसी तरह जीने का इरादा कर चुके हैं, तो दो अरब मुसलमानों और पांच अरब गैर मुसलमानों के बीच संवाद कैसे होगा? हालांकि, शाह फैसल दुनिया के स्तर पर बात कर रहे हैं. मगर भारत का क्या होगा? सिर्फ ‘विभिन्नता में एकता वाला देश’ कहने या ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा, हम बुलबुले हैं इसकी, ये गुलिस्तां हमारा’- गाने से कैसे काम चलेगा? मिलजुली तहजीब महज जुमला बन कर रह जायेगी? इसीलिए, जिस एकता की बात की जाती है, वह हमारे दिलों में कितना पैबस्त है? कहीं हमारे लिए एकता का मतलब सिर्फ अपने धर्म या जाति वालों की एकता तो नहीं है?
इसीलिए, जहां कई धर्म, कई समुदाय, कई समूह या एक ही धर्म के कई रूपों के माननेवाले रहते हों, वहां जीने का कौन सा तरीका अपनाया जाये? अक्सर हम इससे टकराते हैं या हमें इससे टकरा दिया जाता है. अगर हम एक खास कबीले, एक ही विचार, एक ही धर्म, संस्कृति में ही जिंदगी गुजारने को पाबंद हों, तो यह सवाल शायद न उठे. लेकिन, भारत जैसे मुल्क में यह सवाल हर समय मौजूद है और जरूरी भी है. यह मुमकिन नहीं है कि हम अपने-अपने दड़बे में बंद होकर एकता की कोई इमारत खड़ी कर पायेंगे. एका के लिए दड़बे के दायरे को तोड़ना जरूरी है. फिर चाहे वह दायरा किसी के भी नाम पर क्यों न बनाया जाये.
सिर्फ धर्म, समुदाय या जाति के ही जीने के अपने-अपने खास तौर-तरीके नहीं होते हैं. यह समझना और मानना भी निहायत जरूरी है कि लोकतांत्रिक- धर्मनिरपेक्ष मुल्क में रहने के भी कुछ तरीके और तहजीब होंगी, यानी आदाब होंगे. यह आदाब किसी एक मजहबी तौर-तरीके से अलग होने चाहिए. इस तरीके और तहजीब को मोटा-मोटी यों समझ सकते हैं- यानी बात कहने की आजादी. बेखौफ अलग राय रखने की आजादी. अपनी अलग राय के मुताबिक जिंदगी जीने की आजादी. खान-पीने-पहनने-ओढ़ने की आजादी. अपनी इस आजादी के लिए दूसरे की आजादी में दखलंदाजी न करने की आजादी. इसी में बेखौफ मिल-जुलकर साथ-साथ त्योहार मनाने की आजादी भी शामिल है. अगर हम किसी टापू पर अकेले रह रहे हों, तो हमारी सोच या जीने का तरीका कुछ भी हो, किसी को फर्क नहीं पड़ता है. मगर हम ‘विभिन्नताओं’ के साथ रहते हैं, तो हमारा सामाजिक तौर-तरीका, जिन मूल्यों से तय होगा, उसमें दूसरे भी शामिल हैं.
मुबारकबाद देकर हम किसी के साथ खुशी में शामिल होते हैं. इसमें मेरा-तेरा क्या? मुबारकबाद और बधाई की राजनीति अच्छी नहीं है. जो लोग यह राजनीति कर रहे हैं, वे नफरत के बीज बो रहे हैं. उनका चश्मा दकियानूसी है. वे वही दकियानूसी नजरवाला चश्मा सबको पहनाना चाहते हैं. जो सभी से गले मिलने में यकीन करते हों, उन्हें तय करना होगा कि वे यह ‘नजर’ लेंगे या नहीं.

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