कॉमेडी के बदलते अंदाज

pkray11@gmail.com प्रकाश कुमार रे यूं तो सिनेमा के शुरुआती दौर से कहानी में कॉमेडियन मौजूद रहता था, पर 1950 के दशक के बाद उसका होना नायक, नायिका, खलनायक और खलनायिका की तरह ही जरूरी हो गया. दर्शकों में उसकी लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन कलाकारों के नाम पोस्टरों […]

By Prabhat Khabar Print Desk | September 28, 2016 4:59 AM

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प्रकाश कुमार रे

यूं तो सिनेमा के शुरुआती दौर से कहानी में कॉमेडियन मौजूद रहता था, पर 1950 के दशक के बाद उसका होना नायक, नायिका, खलनायक और खलनायिका की तरह ही जरूरी हो गया. दर्शकों में उसकी लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन कलाकारों के नाम पोस्टरों पर प्रमुखता से छपने लगे.

भगवान दादा, जॉनी वॉकर, राजेंद्रनाथ, मनोरमा, टुनटुन, केष्टो मुखर्जी, शोभा खोटे आदि को स्टार की हैसियत मिली हुई थी और फिल्म में इनका होना सफलता की गारंटी का हिस्सा था. कॉमेडियनों के सिलसिले में भगवान दादा की बेमिसाल जगह है. हिंदी सिनेमा में वे पहले अभिनेता थे, जो एक खास अंदाज में शानदार नृत्य कर सकते थे. बारी-बारी से हाथ घुमाने, कमर लचकाने और चेहरे पर हजार भाव चमकाने के उनके हुनर का ही कमाल था कि अमिताभ बच्चन से लेकर मिथुन चक्रवर्ती और गोविंदा तक उन्हें आदर से याद करते हैं.

गुरुदत्त की लगभग हर फिल्म में जॉनी वॉकर खास भूमिकाओं में होते थे और उनके हिस्से में गाने भी आते थे.

भगवान दादा, जॉनी वाकर, महमूद, टुनटुन आदि हास्य कलाकारों की खासियत यह थी कि इनके किरदार कहानी में खाली जगह को भरने और दर्शकों को राहत भर देने के लिए नहीं आते थे, बल्कि कहानी के खास हिस्से होते थे और और उनकी मौजूदगी के बिना कहानी अपनी गति को प्राप्त नहीं कर सकती थी. उस दौर की फिल्मों के मिजाज के मुताबिक इन हास्य कलाकारों की भूमिका भी आम जन-जीवन की मुश्किलों से वाबस्ता थी और उनकी विडंबनाओं को दर्ज करती थी. साधारण परिस्थितियों में साधारण संवाद और मामूली भाव-भंगिमा से दृश्य में जान डाल देने का इनका हुनर ही इन्हें हमारे सिनेमा के महानतम कलाकारों में शामिल करता है.

असरानी जहां संवाद अदायगी के खास अंदाज से हास्य पैदा करते थे, वहीं जगदीप बिना कुछ बोले सिर्फ आंखों और चेहरे के हाव-भाव से दर्शकों को लोटपोट कर सकते थे. बाद के सालों में कादर खान, शक्ति कपूर, जॉनी लीवर जैसे कलाकार आये और पर्दे पर अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे.

लेकिन, 1980 के दशक के बाद बड़ा अंतर यह आया कि खुद नायक भी कॉमेडी करने लगे, और कॉमेडियन की भूमिका हाशिये पर जाने लगी. यह वही दौर था, जब हास्य पैदा करने के लिए फूहड़ता और अपमान का सहारा लिया जाने लगा. बीते कुछ सालों में बोमन ईरानी, राजपाल यादव, परेश रावल, अरशद वारसी आदि के अभिनय ने एक बार फिर कॉमेडियन की पुरानी प्रतिष्ठा को वापस पाने में सफलता पायी है

इस चर्चा में ओमप्रकाश, राजेंद्रनाथ, मुकरी, मोहन चोट्टी, आगा, धूमल, सुंदर, पेंटल, देवेन वर्मा, लक्ष्मीकांत बेर्डे, अशोक सराफ, केतकी दवे, शम्मी आदि का नाम भी सम्मान से लिया जाना चाहिए. बड़ी चिंता यह है कि जहां पुरुष कॉमेडियनों ने कॉमेडी को फिर से इज्जत बख्शी है, वहीं महिला कॉमेडियन सिरे से ही गायब हो चुकी हैं. मनोरमा, टुनटुन, शोभा खोटे, अरुणा ईरानी, लीला मिश्रा, दीना पाठक, रोहिणी हटंगिणी आदि जैसी अभिनेत्रियों ने हमारे सिनेमा को समृद्ध करने में बड़ा योगदान दिया है.

आज टेलीविजन और इंटरनेट के प्रसार ने कॉमेडी के क्षेत्र का भी अच्छा-खासा विस्तार किया है. लेकिन, यह मनोरंजन जगत और दर्शकों की सामूहिक जिम्मेवारी है कि हंसने-हंसाने की इस स्वस्थ कला-परंपरा को फूहड़ता, अश्लीलता और दूसरों के अपमान की प्रवृत्ति से बचाया जाये तथा स्वस्थ मनोरंजन के शानदार माध्यम के रूप में कॉमेडी को प्रयोग में लाया जाये.

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