हम कितने कश्मीर के हैं !

राजेंद्र तिवारी कॉरपोरेट एडिटर प्रभात खबर आजादी मिले 70 साल हो गये. तब से अब तक पांच पीढ़ियां आ चुकीं. पहली, जो आजादी के संघर्ष में शामिल थी या जिसने इस संघर्ष को देखा था. दूसरी, जो उस समय बालवय या किशोरवय थी. तीसरी, जो आजादी के बाद पैदा हुई और जिसने अपने बचपन में […]

By Prabhat Khabar Print Desk | August 22, 2016 6:40 AM

राजेंद्र तिवारी

कॉरपोरेट एडिटर

प्रभात खबर

आजादी मिले 70 साल हो गये. तब से अब तक पांच पीढ़ियां आ चुकीं. पहली, जो आजादी के संघर्ष में शामिल थी या जिसने इस संघर्ष को देखा था. दूसरी, जो उस समय बालवय या किशोरवय थी. तीसरी, जो आजादी के बाद पैदा हुई और जिसने अपने बचपन में जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद, राजेंद्र बाबू जैसे नेताओं को देखा, सुना या पढ़ा और जिसकी सोच पर इन नेताओं या कहें कांग्रेस का प्रभाव रहा. चौथी, जो 1970 के बाद पैदा हुई, जिसने कांग्रेस और नेहरूवादी मूल्यों के पराभव की प्रक्रिया में शामिल रही या इस प्रक्रिया को देखा.

पांचवीं पीढ़ी तैयार हो रही है, जो उदारीकरण के दौर में पैदा हुई. जनसंख्या के आंकड़े देखें, तो देश में आज आधे से ज्यादा वे लोग हैं, जो 1975 के बाद पैदा हुए. राजनीति में भी देखें, तो अब बागडोर उनके हाथ में हैं, जो 1947 के बाद पैदा हुए और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में उनका दबदबा है, जो नेहरूवादी नैतिकता और मूल्यों की छाया में नहीं पले-बढ़े. और, अब जो पीढ़ी आगे आ रही है, वह शीतयुद्ध व सोवियत छाया से भी मुक्त है.

सरकार से लेकर समाज में नीचे तक जो खदरबदर हो रही है, वह इस पीढ़ी में बदलाव का ही नतीजा है. इस स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बलूचिस्तान, गिलगिट और मुजफ्फराबाद के लोगों के संघर्ष का जिक्र किया जाना भी इसी प्रक्रिया की एक कड़ी के तौर पर देखा जाना चाहिए.

अब तक ऐसा नहीं हुआ. जब से कश्मीर में आतंकवाद है, कमोबेश सभी प्रधानमंत्री एक ही जैसी बात दोहराते रहे – कश्मीर हमारा है, पाकिस्तान दखल बंद करे, बातचीत से हल निकलेगा, हम बातचीत को तैयार हैं, कश्मीर समस्या के हल के लिए कश्मीरियों से बातचीत की जायेगी आदि आदि. लेकिन इस बार भारत सरकार ने पाकिस्तान को लेकर अपने रवैये में जबरदस्त बदलाव किया कि पाकिस्तान सुधरता नहीं है, तो हम मनुहारवादी नैतिकता से नहीं, बल्कि बाजार के व्याकरण से काम लेंगे. कुछ लोग पूरे मामले को 1971 के पूर्वी पाकिस्तान के मसले की तरह डेवलप होता हुआ देख रहे हैं. प्रधानमंत्री मोदी के इस रुख को बांग्लादेश से समर्थन के स्वर भी मिलने लगे हैं. लेकिन, बलूचिस्तान बांग्लादेश नहीं है. बांग्लादेश में जड़ कुछ और थी और बलूचिस्तान में कुछ और.

यहां पूरा मामला आर्थिक है, जिसमें चीन जैसी महाशक्ति के हित भी जुड़े हुए हैं. यहां यह बताना गैरमुनासिब न होगा कि पाकिस्तान में आधा क्षेत्रफल बलूचिस्तान का ही है. यह इलाका यूरेनियम, तेल और दूसरे खनिजों का भंडार है. पाकिस्तान के कुल समुद्री तट का करीब 80 फीसदी बलूचिस्तान में ही पड़ता है. यहां का ग्वादर बंदरगाह पाकिस्तान का गहरे पानीवाला अकेला बंदरगाह है. चीन इस बंदरगाह के जरिये दुनिया के इधर वाले यानी पश्चिमी एशिया व अफ्रीका तक अपनी पहुंच बनाना चाहता है. इसलिए, यदि बलूचिस्तान में आग लगी रहती है तो इसका नुकसान सबसे ज्यादा चीन को ही होगा. तो बलूचिस्तान का नाम लेने के पीछे यह कोण भी कम महत्वपूर्ण नहीं है. अफगानिस्तान की नजर भी यहां पर है.

अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई ने प्रधानमंत्री का समर्थन भी कर दिया. बलूचिस्तान में पाकिस्तानी सेना के दमन चक्र व मानवाधिकार हनन के मामलों के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खड़े होने से पाकिस्तान का मुश्किल में फंसते जाना तय है. लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है. पाकिस्तान को रास्ते पर लाने की इस रणनीति की सफलता की एक बड़ी शर्त यह भी होगी कि भारत कश्मीर में जल्दी भरोसा वापसी कर अमन बहाली कर पाता है या नहीं. और तय है कि कश्मीर में सैन्य प्रक्रिया नहीं, राजनीतिक प्रक्रिया ही कारगर सिद्ध होगी.

यहां देश के राजनीतिक नेतृत्व को परिपक्वता दिखानी पड़ेगी. दरअसल अपने यहां मान लिया गया है कि कश्मीर समस्या हल करना, वहां राजनीतिक प्रक्रिया व भरोसा बहाली करना सिर्फ सरकार का ही काम है. शायद यही वजह है कि सत्तासीन पार्टी के नेताओं के अलावा, बाकी सभी पार्टियों के नेता बयानबाजी में ही लगे रहते हैं, जबकि देश के राजनीतिक नेतृत्व का बड़ा हिस्सा इन्हीं पार्टियों से आता है.

1971 में अगर कठिन परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना लिया गया था, तो इसकी एक बड़ी वजह सत्ताधारी पार्टी के साथ-साथ देश के समूचे राजनीतिक नेतृत्व की परिपक्वता ही थी. इसलिए केवल सर्वदलीय बैठक करने और ऑल पार्टी डेलीगेशन को कश्मीर भेजने भर से काम नहीं चलने वाला. मामला कश्मीर हमारा है का नहीं, बल्कि ‘हम कितने कश्मीर के हैं’ का है. ओवैसी साहब हैदराबाद से आकर बिहार में चुनाव लड़ सकते हैं, सभाएं व प्रेस कांफ्रेंस करते हैं, यूपी में सभाएं व प्रेस कांफ्रेंस करते हैं, संसद में कश्मीर पर बड़ी जबरदस्त तकरीर करते हैं, लेकिन वे कश्मीर में जाकर ये सब नहीं करते. केजरीवाल गुजरात में प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ राजनीति फैलाने जाते हैं, लेकिन कभी जम्मू-कश्मीर का रुख नहीं करते.

समाजवादी दल गोवा, केरल, दमन, असम और न जाने कहां-कहां राष्ट्रीय अधिवेशन, कार्यसमिति की बैठकें, चिंतन शिविर, प्रशिक्षण शिविर आदि करते रहते हैं, लेकिन कभी जम्मू-कश्मीर का रुख नहीं करते. अगर ये पार्टियां जम्मू-कश्मीर जाकर वहां राजनीतिक कार्यक्रम करें, राजनीतिक प्रस्ताव पारित करें, केंद्र पर वैसे ही हमला करें जैसे यहां करते रहते हैं, कश्मीरियों के इश्यू, सेकुलरिज्म का झंडा उठाएं, तो सही मायने में कश्मीर में भरोसेमंद राजनीतिक प्रक्रिया शुरू हो पायेगी.

तमाम विरोध के बावजूद मुझे लगता है कि भाजपा ने तो जम्मू-कश्मीर में सरकार बना कर जबरदस्त काम किया है, लेकिन यह काम मजबूत भरोसा पैदा करने की दिशा में आगे तभी बढ़ सकेगा, जब बाकी राजनीतिक दल वहां सक्रियता दिखाएं. कश्मीर को एनसी और कांग्रेस के भरोसे छोड़ देने का नतीजा तो सबके सामने है.

सभी राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे एक साथ बैठ कर कश्मीर में वास्तविक राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने पर सहमति व सहयोग की दिशा में आगे बढ़ें. यानी यहां भी नेहरू पर निर्भरता खत्म करनी ही होगी. जब तक यह नहीं होता, तब तक बलूचिस्तान का इश्यू उठाकर पाकिस्तान की बांह मरोड़ने की रणनीति के कोई कारगर नतीजा देने की जगह फांस बन जाने के खतरे बने रहेंगे.

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