गांव अब गांव नहीं रहे

प्रभात रंजन कथाकार अभी हाल में ही मेरे एक पुराने मित्र अपने गांव गये थे. लौटे तो मैंने पूछा गांव का क्या हाल? बोले अब वह बात नहीं रही, सब कुछ बदल गया है. अब लोग पहले की तरह नहीं मिलते हैं, वहां भी सब टीवी पर चिपके रहते हैं. बिजली वैसे तो पहले से […]

By Prabhat Khabar Print Desk | February 25, 2016 2:20 AM
प्रभात रंजन
कथाकार
अभी हाल में ही मेरे एक पुराने मित्र अपने गांव गये थे. लौटे तो मैंने पूछा गांव का क्या हाल? बोले अब वह बात नहीं रही, सब कुछ बदल गया है. अब लोग पहले की तरह नहीं मिलते हैं, वहां भी सब टीवी पर चिपके रहते हैं. बिजली वैसे तो पहले से अधिक रहती है, लेकिन नहीं रहने पर सबके घर में जेनरेटर का कनेक्शन है. ज्यादा नहीं, तो एक प्वॉइंट टीवी के लिए सबके पास रहता है. गांव में इतने पक्के घर बन गये हैं कि लगता है गांव में नहीं शहर में हैं. और तो और, हालत यह हो गयी है कि गांव में भी लड़कियां जींस पहन कर घूमती हैं.
किसी को जैसे किसी का कोई लिहाज ही नहीं रह गया है. मुझे याद आया कि एकाध साल पहले मेरी छोटी बहन गांव में एक रिश्तेदार के यहां शादी में गयी, तो उसने बड़ी हैरानी से बहुत बातों के साथ यह बात भी बतायी कि गांव की लड़कियां रेवलोन तो छोड़िये, पर्सोनी की महंगी-महंगी लिपस्टिक लगा रही थीं. और तो और भैया, गांव में सेंट कबीर पब्लिक स्कूल भी खुल गया है.
असल में हम विस्थापित लोग अपने मन में एक गांव लेकर रहते हैं. हम यह तो चाहते हैं कि अपने चुने गये शहर में अपना भौतिक विस्तार करते जायें, तमाम तरह की आधुनिकतम सुविधाएं जुटाते जायें, लेकिन हमारा गांव वैसा ही बना रहे जैसा हमारे मन में है.
हमारे मन का गांव जब हमें नहीं दिखाई देता है, तो हमारे दिल को चोट पहुंचती है. यह बड़ा विरोधाभास है. अगर विकास का मतलब तमाम तरह की भौतिकताओं को जुटाना है, आधुनिकतम सुविधाओं से लैस होना है, तो विकास के उस पैमाने पर गांवों को क्यों पीछे रहना चाहिए? मुझे अहमद हुसैन-मोहम्मद हुसैन का गाया यह गीत याद आ रहा है- ‘बहुत दिनों के बाद जब मैं आया अपने गांव में… न आम के वो पेड़ हैं, न मदभरी जवानियां/न झूला कोई डाल पर, न प्यार की कहानियां/ न दो दिलों की धड़कनें हैं पीपलों की छांव में…’
प्रसिद्ध फ्रांसीसी विद्वान पियरे बोर्देयु ने लिखा था कि पूरी दुनिया में एक सी संस्कृति फैल रही है. वैश्वीकरण ने पूरी दुनिया में एक जैसी संस्कृति का विकास किया है, एक जैसा खान-पान, एक जैसा पहनना-ओढ़ना. करीब दस साल पहले भारतीय अंगरेजी लेखक पीको अय्यर ने एक लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने लिखा था कि आज ग्लोबल मैन की अवधारणा है. पूरी दुनिया में एक जैसी चीजें मिलने लगी हैं. स्थानीय विशेषताएं शनैः शनैः मिटती जा रही हैं.
लेकिन हमारे यहां जो विस्थापित संस्कृति है, वह लगता है कि यह मानती है कि हम तो खूब फलें-फूलें, देश विदेश में फैलें, लेकिन गांव वही धूल भरी कच्ची सड़कों वाले बने रहें, तमाम तरह की सुविधाओं से रहित, जहां जाकर हम अपने बच्चों को यह दिखा सकें कि देखो यही तुम्हारे दादा-दादी का गांव है, जो तुम्हारे शहर से काफी अलग है. जब वह हमारे शहर की तरह होने लगता है, तो हमें परेशानी होने लगती है. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता है- यहीं कहीं एक कच्ची सड़क थी जो मेरे गांव को जाती थी…
हम यह चाहते हैं कि आदिवासी अपने मूल रूप में बने रहें, ताकि हम जायें उनके नृत्य देखें, उनका महुआ पीयें और अपने जीवन में एक्जॉटिक का समावेश करें. शहरी मध्यवर्ग अपना विकास तो खूब चाहता है, लेकिन दूसरों का नहीं.
सवाल यह है कि अगर विकास का मतलब एक जैसा होना ही है, तो हम गांवों से क्यों इस बात की उम्मीद करते हैं कि वे वैसे के वैसे बने रहें? यह एक बड़ा सवाल है!

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