।। अभिषेक दुबे ।।
(वरिष्ठ खेल पत्रकार)
वो मेरी कोख से जन्मा है, मेरा बेटा ऐसा नहीं कर सकता है, लोग उसे फंसा रहे हैं.. वो अच्छा खेल रहे थे, इसलिए सब जलते हैं, मेरा भाई निर्दोष है.. मेरे बेटे ने ऐसा नहीं किया, धोनी-भज्जी ने मिल कर उसे फंसाया होगा.. मेरे पति ने भावना में आकर धोनी का नाम ले लिया, मैं उनसे माफी मांगती हूं, पर मेरा बेटा ऐसा नहीं कर सकता.. अजय चंदीला की मां वीरवती हों या पत्नी सरिता, अंकित चव्हाण के भाई जय हों या श्रीसंत की मां सावित्री, हर कोई पचा नहीं पा रहे थे कि उनका लाड़ला आखिर ऐसा कैसे कर सकता है! कोच्चि से लेकर फरीदाबाद तक की गलियों से दुनिया के सबसे महंगे लीग का रास्ता तय करनेवाले ये युवा आखिर ऐसे कैसे रास्ते से भटक सकते हैं! हर मां-बाप के लिए उसका लाड़ला कभी गलती नहीं कर सकता, पर वीरवती से लेकर सावित्री तक की आंखों में अजीब सी बेचैनी थी और इस बेचैनी में मौजूदा आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था से कई सवाल भी थे.
मैदान के इन रणबांकुरों को सलाखों के पीछे देख कर दिल कचोटता है. ये तो हीरो थे, जिनकी एक झलक के लिए लाखों दीवाने लाइन लगाते हैं, फिर इन्हें काले कपड़े से मुंह क्यों छिपाना पड़ रहा है! पाकिस्तान क्रिकेट को फिक्सिंग की फांस ने सबसे अधिक तबाह किया है. जिस भी पाकिस्तानी क्रिकेटर से बात होती है, वो कैमरे से दूर एक ही रोना रोते हैं- क्या करें, हमारा कैरियर 15 साल का होता है और हमें पैसे नहीं मिलते. लेकिन आइपीएल में तो अथाह पैसा है और शोहरत की तो कोई कमी ही नहीं. फिर ऐसा करने की क्या जरूरत है! श्रीसंत, अंकित और अजीत ने जो किया, उन्हें इसकी पूरी सजा मिलनी चाहिए और मिलेगी भी. पर एक सवाल का जवाब हमारी व्यवस्था इस बार भी नहीं दे सकेगी- आखिर हम दुर्घटना का इंतजार क्यों कर रहे थे?
सन् 2000 में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने मोहम्मद अजहरुद्दीन पर लाइफ बैन और अजय जडेजा पर पांच साल की पाबंदी लगायी. इसके बाद पाकिस्तान से लेकर इंग्लैंड तक में फिक्सिंग की फांस में कई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटर फंसे, पर किसी भारतीय क्रिकेटर का नाम नहीं आया. लेकिन खतरनाक बात यह थी कि फिक्सिंग का मामला चाहे लंदन में हुआ हो या जोहांनिसबर्ग में, कोलंबो में हुआ या ऑकलैंड में, अधिकतर मामलों में तार भारतीय बुकी से जुड़े थे. फेडेरेशन ऑफ क्रिकेटर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष टिम मे हों, या आइसीसी एंटी करप्शन यूनिट के मुखिया पॉल कोनडोन, हर किसी ने बीसीसीआइ को चेतावनी दी थी कि आइपीएल जैसे प्राइवेट लीग में फिक्सिंग की संभावना होने का खतरा है और इसे रोकने के लिए मजबूत तंत्र बनाने की जरूरत है. लेकिन आजाद आवाजों को दबाने और भले ही विरोध के स्वर बेहतरी के लिए हो, उसका मुंह बंद करने की हमारी व्यवस्था की आदत बन चुकी है. दुनिया के सबसे ताकतवर और अमीर क्रिकेट बोर्ड ने भी यही किया और परिणाम सामने है.
खेल सिर्फ खेल नहीं, मौजूदा आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था का आईना होता है. क्रिकेटर व क्रिकेट व्यवस्था को चलानेवाले लोग जूपिटर से नहीं आते, वे हमारे बीच से ही आते हैं. श्रीसंत हों या अजीत, वे इसी व्यवस्था से होकर आये हैं. कोच्चि से लेकर फरीदाबाद की गलियों से होते हुए जब वे आइपीएल में ग्लैमर और पैसों से लबरेज डगआउट का हिस्सा बने और बड़ी पार्टियों में आने-जाने लगे, तो इस नयी जिंदगी को पचा नहीं सके. चकाचौंध की इस दुनिया में उन्हें गाइड की जरूरत थी और एक ऐसी व्यवस्था का आसरा चाहिए था जो उन्हें सही-गलत के बीच की लकीर को बता सके. तभी तो इन तीनों खिलाड़ियों के माता-पिता और करीबी लोगों को लग रहा था कि उन्होंने तो बेटे का एक रूप देखा था, इस दूसरे रूप का अंदाजा तो उन्हें दूर-दूर तक सपनों में नहीं था. ऐसा कैसे हो सकता है और ये क्या हो गया!
आइपीएल के दौर में भारतीय क्रिकेट में तीन तरह के क्रिकेटर बुकीज के लिए आसान टारगेट बन कर सामने आये हैं. श्रीसंत जैसे क्रिकेटर, जो बेहद टैलेंटेड थे और दो बार वर्ल्ड चैंपियन टीम का हिस्सा रहे. जैसे ही उनका कैरियर उड़ान भरनेवाला था, हरभजन सिंह के साथ चांटा विवाद सामने आया. वे ड्रेसिंग रूम में अलग-थलग पड़ते गये और कप्तान धोनी के गुड-बुक्स में नहीं रहे. तभी फॉर्म और फिटनेस ने साथ छोड़ा और ऐसा लगा कि वो हाशिये पर जा रहे हैं. खिलाड़ी का कैरियर 10-15 साल का होता है और जब प्रतिभा के हिसाब से प्रदर्शन नहीं हुआ, तो वे गलत लोगों के साथ चले गये. दूसरा मॉडल अंकित और अजीत का है, जो आइपीएल तक तो आ गये, लेकिन जिनकी टीम इंडिया में आने की संभावना न के बराबर थी. मुश्किल हालात से आये ऐसे क्रिकेटरों को बुकीज यह कह कर शामिल कर लेते हैं कि तीन साल में पूरा कमा लो. तीसरा मॉडल विदेशी खिलाड़ियों का है, जो आइपीएल को मैदान के बाहर भी पैसा बनाने की मशीन मानते हैं. हालांकि, अबतक विदेशी क्रिकेटर का नाम सामने नहीं आया है, पर आइपीएल को जाननेवाले लोग ऐसा अंदेशा जताते हैं.
श्रीसंत के ताजे मामले को समझने के लिए 12 साल पीछे जाने की जरूरत है. अजहरुद्दीन और जडेजा पर बैन लगा था और इनके साथ कई क्रिकेटरों के नाम भी सामने आये थे. क्रिकेट के दीवानों का मैचों से भरोसा उठता जा रहा था और भारतीय क्रिकेट को विश्वसनीयता की जरूरत थी. ऐसे में सौरव गांगुली की पीढ़ी ने ड्रेसिंग रूम को पूरी तरह से बदल दिया. गांगुली को ड्रेसिंग रूम में द्रविड़, सचिन, श्रीनाथ, कुंबले और लक्ष्मण का साथ मिला, जो मैदान के अंदर ही नहीं, बाहर भी बेमिसाल थे. बल्ला और गेंद तो इनकी ताकत थी ही, अपने हाव-भाव और व्यवहार से भी ये रोल मॉडल थे. लेकिन हर क्रिकेटर सौरव या सचिन नहीं होता. छोटे शहरों और तंग घरों से छलांग लगा भारतीय क्रिकेट के आसमां में छानेवाले नये नौजवान भारतीय क्रिकेट की ताकत हैं. इस ताकत को संवारने के लिए ऐसी व्यवस्था जरूरी है, जिसमें इनके मार्गदर्शन और विकास की भी ठोस प्रक्रिया हो.
श्रीसंत, अंकित चव्हान और अजीत चंदीला को सजा हो जायेगी, लेकिन क्या यह भारतीय क्रिकेट के इस कैंसर को खत्म कर सकेगा? बेन जॉन्सन और लांस आर्मस्ट्रोंग दोषी करार दिये जाने के बाद वहां की व्यवस्था से पूरी तरह से अलग-थलग हो गये, लेकिन हमारे नौजवान क्रिकेटरों ने फिक्सिंग की वजह से बैन का सामना कर रहे पूर्व क्रिकेटरों को राजनेता और टेलीविजन स्टूडियो में एक्सपर्ट बनते देखा है. ऐसे में यही संदेश जाता है कि अगर फंस भी गये, तो आगे एक जिंदगी है. इसलिए क्रिकेट का करप्शन तब तक खत्म नहीं होगा, जब तक कि इसके किरदारों को सामाजिक मान्यता मिलना बंद नहीं होगा. अभी भी समय है भ्रष्टचार से निबटने के ठोस उपाय किये जायें.