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कर्नाटक के नतीजों के सबक

।। लालकृष्ण आडवाणी ।।(वरिष्ठ भाजपा नेता)– वरिष्ठ भाजपा नेता और पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लॉग पर कर्नाटक चुनाव परिणामों के बहाने देश की राजनीति और भ्रष्टाचार पर यह बेहद अहम टिप्पणी लिखी है. – कर्नाटक में मिली पराजय का मुझे दुख है. लेकिन, मैं आश्चर्यचकित नहीं हूं. आश्चर्य तब होता यदि हम […]

।। लालकृष्ण आडवाणी ।।
(वरिष्ठ भाजपा नेता)
– वरिष्ठ भाजपा नेता और पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लॉग पर कर्नाटक चुनाव परिणामों के बहाने देश की राजनीति और भ्रष्टाचार पर यह बेहद अहम टिप्पणी लिखी है. –

कर्नाटक में मिली पराजय का मुझे दुख है. लेकिन, मैं आश्चर्यचकित नहीं हूं. आश्चर्य तब होता यदि हम विजयी हुए होते. वर्तमान में, मुझे लगता है कि कर्नाटक के नतीजे भाजपा के लिए एक गंभीर सबक हैं. एक प्रकार से यह कांग्रेस के लिए भी सबक हैं. हम दोनों के लिए आम आदमी का सबक है : आम आदमी को अपनी जेब में पड़ा मान कर मत चलिए. हो सकता है कि वह स्वयं कई मौकों पर नैतिक आचरण से इतर व्यवहार करता है, परंतु राष्ट्रीय मामलों के शीर्ष पर बैठे हुए लोगों के अनैतिक आचरण पर अत्यंत क्रोधित होता है. यही मुख्य कारण है जिसके चलते इन दिनों सामान्य तौर पर राजनीतिज्ञों के प्रति गहन वितृष्णा का भाव बना हुआ है.

यदि भ्रष्टाचार कर्नाटक में नाराजगी का कारण बना है, तो क्यों नहीं यही भावना नयी दिल्ली में भी महसूस की जायेगी? वास्तव में, मैं मानता हूं कि कोलगेट और रेलगेट कांडों में लिये गये निर्णयों में कर्नाटक के नतीजों ने ठोस निर्णायक योगदान दिया है! कर्नाटक चुनावी नतीजों से पूर्व, कांग्रेस पार्टी इन दोनों घोटालों में कुछ भी न करने का मन बना कर बैठी थी, भले ही इसके चलते बजट सत्र का दूसरा भाग व्यर्थ चला जाये.

इस तरह के समाचार प्रकाशित हुए हैं कि हम कर्नाटक इसलिए हारे क्योंकि हमने येदियुरप्पा को पार्टी से बाहर कर दिया था. मुझे कुछ प्रमुख स्तंभकारों की यह टिप्पणियां देखने को मिलीं : देखो कैसे सोनियाजी ने वीरभद्र सिंह पर लगे आरोपों को दरकिनार कर कांग्रेस के लिए फायदा पाया. कर्नाटक में उठाये गये सैद्धांतिक फैसले पर भाजपा को अपने आप पर गर्व है. नतीजा सामने है कि भाजपा ने दक्षिण में जमायी अपनी जमीन को खो दिया.

सर्वप्रथम, भाजपा ने येदियुरप्पा को बाहर नहीं निकाला; उन्होंने स्वयं ही पार्टी छोड़ी और केजीपी के नाम से अपनी एक अलग पार्टी बनाने का निर्णय किया. वास्तव में, जब यह स्पष्ट हो गया था कि वह खुलेआम भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, यदि तभी पार्टी ने तुरंत कड़ी कार्रवाई की होती, तो हालात आज कुछ और होते. लेकिन अनेक महीनों तक उनकी कारगुजारियों को नजरअंदाज कर किसी तरह उन्हें मनाने के प्रयास होते रहे. इसके लिए तर्क दिया जाता रहा कि यदि पार्टी ने ‘व्यावहारिक’ दृष्टि नहीं अपनायी, तो वह दक्षिण में अपनी एकमात्र सरकार को गंवा देगी.

इस अवधि में, अकसर मैं पार्टी के अपने सहयोगियों को बताया करता था कि ऐसा संकट प्रारंभिक वर्षो में राजस्थान में भी आया था. भाजपा की पूर्ववर्ती जनसंघ की स्थापना सन् 1951 में डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने 1952 के पहले आम चुनावों से पहले की थी. स्वतंत्रता के पहले दशक (1947-57) के दौरान राजस्थान जनसंघ का एक पदाधिकारी होने के नाते मैं 1952 के चुनावों में पार्टी की शानदार सफलता का प्रत्यक्षदर्शी रहा हूं और बाद में उत्पन्न हुए संकट का भी.

सन् 1952 में जनसंघ ने तीन लोकसभाई और सभी राज्य विधानसभाओं में 35 सीटें जीती थीं. इन तीन सीटों में से दो पश्चिम बंगाल (डॉ एसपी मुखर्जी और श्री दुर्गाचरण बनर्जी) और एक राजस्थान (बैरिस्टर उमाशंकर त्रिवेदी) से थीं. राज्य विधानसभाओं की कुल 35 सीटों में से 9 पश्चिम बंगाल और 8 राजस्थान से मिली थीं. राजस्थान में पार्टी के सम्मुख उपजा संकट यह था कि पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में जागीरदारी प्रथा के उन्मूलन का वादा किया था; लेकिन राजस्थान में चुने गये आठों विधायक स्वयं जागीरदार थे! जब राज्य विधानसभा शुरू हुई, तो कांग्रेस पार्टी ने अपना स्पीकर बनाया और डिप्टी स्पीकर पद जनसंघ को दिया. श्री लाल सिंह शखातावत डिप्टी स्पीकर चुने गये.

विधानसभा के पहले ही सत्र में कांग्रेस पार्टी ने जो विधेयक प्रस्तुत किये, उनमें से एक था जागीरदारी प्रथा के उन्मूलन का. जब हमने अपनी पार्टी के विधायकों को पार्टी के घोषणा पत्र में किये गये वादे की ओर ध्यान दिलाते हुए इस विधेयक को समर्थन देने को कहा, तो उनमें से अधिकांश ने साफ इनकार कर दिया.

हमने नयी दिल्ली में डॉ मुखर्जी को फोन पर इस संकट की जानकारी दी. उन्होंने कहा कि वे स्वयं जयपुर आकर विधायकों से बात करेंगे. मैं उन दिनों को और उस तनाव को जो उस दौर में हमने झेला, को कभी नहीं भूल सकता. जब डॉ मुखर्जी वहां पहुंचे, तो तनाव और बढ़ गया. 8 में 6 विधायक चुपचाप अपने-अपने क्षेत्रों में चले गए. इनमें नवनिर्वाचित डिप्टी-स्पीकर भी शामिल थे. जो दो विधायक वहां थे वे डॉ मुखर्जी से मिले और उन्हें सूचित किया कि वे पार्टी के निर्णय का पालन करेंगे; जबकि शेष विधायकों ने इस प्रस्तावित विधेयक के विरोध का मन बनाया.

डॉ मुखर्जी ने पार्टी के पदाधिकारियों को परामर्श दिया कि इन असंतुष्टों को मनाने का एक और अंतिम प्रयास किया जाये, लेकिन यदि वे तब भी नहीं मानते, तो उनके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई करने में संकोच न करें.

यह आसान निर्णय नहीं था. हम उस समय के महासचिव पंडित दीनदयाल उपाध्यक्ष के सतत संपर्क में थे. मैं यह कभी नहीं भूल सकता कि 8 में से 6 विधायकों को निष्कासित करने का निर्णय पार्टी ने किया. और जो दो शेष बचे थे, उनमें से एक थे स्वर्गीय श्री भैरों सिंह शेखावत, जो तीन बार राजस्थान के मुख्यमंत्री बने और बाद में भारत के उपराष्ट्रपति पद तक पहुंचे. देश में ऐसे कितने दल होंगे जो इस तरह के निर्णय लेने की हिम्मत रखते हों? और जनसंघ ने ऐसी हिम्मत अपने शैशवकाल में ही दिखायी!

इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि ऐसे अनेक उदाहरण गिनाये जा सकते हैं जब अन्य दलों ने गंभीर दुराचारों को नजरअंदाज कर दिया, लेकिन हमें यह एहसास रहना चाहिए कि लोग जिस पैमाने पर भाजपा को तौलते हैं वह दूसरी पार्टियों के नजरिये से अलग है! वह इसलिए कि इन वर्षों में हमारे शानदार कामों से जनता में हमसे बड़ी आशाएं पैदा हुई हैं, इसलिए एक छोटी सी भी असावधानी हमारे लिए महंगी साबित हो सकती है. और कर्नाटक संकट से निपटने में हमारा रुख किसी भी रूप में एक छोटी असावधानी कदापि नहीं थी. मैं निरंतर कहता रहा हूं कि कर्नाटक से निपटने में हमारी दृष्टि पूर्णतया अवसरवादी थी.
(लालकृष्ण आडवाणी के ब्लॉग से साभार)

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