प्रेमचंद अब क्यों नहीं!

कालजयी साहित्यकार प्रेमचंद के 135वीं जयंती पर बड़ी संख्या में आयोजनों और चर्चाओं का होना इस बात की ताकीद है कि उनकी प्रतिष्ठा और लोकप्रियता पीढ़ियों की हद से परे हैं. निधन के 85 वर्ष बाद भी उनकी रचनाएं सबसे अधिक पढ़ी जा रही हैं और सर्वकालिक सर्वाधिक बिकनेवाले साहित्य में शामिल हैं. धनपत राय […]

By Prabhat Khabar Print Desk | July 31, 2015 11:44 PM
कालजयी साहित्यकार प्रेमचंद के 135वीं जयंती पर बड़ी संख्या में आयोजनों और चर्चाओं का होना इस बात की ताकीद है कि उनकी प्रतिष्ठा और लोकप्रियता पीढ़ियों की हद से परे हैं. निधन के 85 वर्ष बाद भी उनकी रचनाएं सबसे अधिक पढ़ी जा रही हैं और सर्वकालिक सर्वाधिक बिकनेवाले साहित्य में शामिल हैं.
धनपत राय श्रीवास्तव के रूप में जन्मे इस रचनाकर ने पहले नवाब राय और फिर प्रेमचंद के रूप में न सिर्फ अपने पाठकों की संवेदनशीलता और साहित्यानुराग को तुष्ट और पुष्ट किया, बल्कि साहित्य और समाज के अंर्तसबंधों को भी नयी दृष्टि और दिशा दी. वर्ष 1936 में 56 वर्ष की उम्र में देहावसान तक उन्होंने हिंदी और उर्दू भाषाओं में 250 से अधिक कहानियों और दर्जन से अधिक उपन्यासों का सृजन किया.
साहित्य को समाज का दर्पण माननेवाले कलम के इस सिपाही ने लेखकीय कल्पनाशीलता से समाजिक यथार्थ को आबद्ध किया और भारतीय साहित्य को प्रगतिशीलता की राह पर लेकर आये. कस्बों-शहरों से रेलवे स्टेशनों की किताब की दुकानों तक, स्कूली पाठ्यक्रमों से गंभीर अध्यताओं की अलमारियों तक में विश्व इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण रचनाकारों की किताबों के साथ सजी प्रेमचंद की रचनाएं उनके योगदान के महत्व का प्रमाण हैं. लेकिन उन्हें याद करते हुए हमें यह आत्मावलोकन भी करना चाहिए कि प्रेमचंद की रचना-परंपरा को आगे ले जाने की प्रक्रिया में हमारे वर्तमान का क्या योगदान है?
प्रेमचंद किसानों, खेत-मजदूरों, और महिलाओं की स्थिति, ग्रामीण जन-जीवन तथा मध्यवर्गीय परिवारों की संरचना आदि को जिस सूक्ष्म जीवंतता और संवेदना के साथ संप्रेषित करते थे, वह हमारे समय की रचनाओं में अनुपस्थित क्यों है? आज उस जमाने की तुलना में लेखन, प्रकाशन और पाठन का दायरा बहुत विस्तृत है, समाज तथा व्यक्ति की समस्याएं व सभ्यतागत जटिलताएं भी सघन हैं, साहित्य के हस्तक्षेप की आवश्यकता भी बढ़ी है और उत्तरदायित्व का बोध भी. फिर भी पूस की रात, कफन, ईदगाह, बड़े घर की बेटी जैसी मार्मिक कहानियां और गोदान, निर्मला, रंगभूमि जैसे कालजयी उपन्यास नहीं रचे-गढ़े जा रहे हैं.
प्रेमचंद की रचनाओं की निरंतर बढ़ती प्रासंगिकता और लोकप्रियता जहां उनकी महानता को सिद्ध करती हैं, वहीं उनकी परंपरा में कुछ उदात्त और विशेष जोड़ पाने में हमारी असफलता निराश भी करती है. प्रेमचंद की सतत उपस्थिति और स्मृति हमारी जड़ता से जूझने का आह्वान भी है.

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