आज के मनुष्य की कुत्ता-भक्ति

सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार पुराने जमाने में कुत्ता पालनेवाले से कुत्ते की पहचान होती थी. संदेश जाता था कि भाई, इसे कुछ मत कहो, यह फलानेबहादुर का कुत्ता है! यहां तक कि इसे कुत्ता भी मत कहना, वरना अगर इसके मालिक को पता चल गया तो वह हमीं को कुत्ता बनाके छोड़ेगा.बेहतर है, इसे डॉगी […]

By Prabhat Khabar Print Desk | July 31, 2015 11:42 PM
सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
पुराने जमाने में कुत्ता पालनेवाले से कुत्ते की पहचान होती थी. संदेश जाता था कि भाई, इसे कुछ मत कहो, यह फलानेबहादुर का कुत्ता है! यहां तक कि इसे कुत्ता भी मत कहना, वरना अगर इसके मालिक को पता चल गया तो वह हमीं को कुत्ता बनाके छोड़ेगा.बेहतर है, इसे डॉगी कहो, क्योंकि डॉगी अंगरेजी में होने के कारण समानार्थी होने पर भी कुत्ते के मालिक को उतना इरिटेट नहीं करता. इससे भी बेहतर है कि इसे इसके नाम से बुलाओ, जो कि अवश्य ही आकर्षक होगा.
खाकसार के एक दोस्त को कुत्ते पालने का शौक था. उसने पांच-छह बढ़िया कुत्ते पाल रखे थे, जिन्हें लोग देखने आते थे. वह भी शौक से उन्हें दिखाता था. एक बार ऐसे ही दूर से उसके कुत्तों के दर्शन करने आये एक दूरदर्शक ने प्रशंसा करते हुए पूछा कि भाई, तुम्हारे कुत्ते तो शानदार हैं, इनके नाम क्या-क्या हैं? उसने गर्व से बताया कि इसका नाम धर्मेद्र, इसका जीतेंद्र, इसका अमिताभ और इसका अभिषेक! बंदे ने प्रभावित होते हुए कहा- वाह, और तुम्हारा? उसने कहा- जी, टॉमी.
बड़े आदमियों के कुत्तों में युधिष्ठिर का कुत्ता सबसे प्रसिद्ध है, जिसे उनके कहने पर स्वर्ग में उनसे पहले जगह देनी पड़ी थी. स्वर्ग में जगह देने के लिए उसे धर्मराज का अवतार बताना पड़ा था, जिसका मतलब है कि वह धर्मराज के पास पर अंदर जा पाया था, क्योंकि कुत्ते के रूप में उसका जाना स्वर्ग के प्रवेश-नियमों के विरुद्ध था. पहचान बनाने के लिए कुछ आदमी भी बड़े लोगों के कुत्ते बन जाते थे, जिसकी परंपरा आज भी जारी है.
कबीर इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं, जो सीधे राम के ही कुत्ते बन बैठे थे- ‘कबीर कूता राम का मुतिया मेरा नाऊं’. उनकी इस चाल का तोड़ उनके समकालीन किसी अन्य कवि के पास नहीं था, जिस कारण हजारी प्रसाद द्विवेदी तक को उन पर एक पूरी किताब लिख कर और उसमें प्रमाण दे-देकर उन्हें ‘भाषा का डिक्टेटर’ सिद्ध करना पड़ा.
और तो और, कबीर ने अपने गले में राम का आधिकारिक कुत्ता होने का आइ-कार्ड भी लटका लिया था- ‘गले राम की जेबड़ी जित खैंचे तित जाऊं’. इसके बल पर वे राम के साथ-साथ या अलग से भी, ऐसी-ऐसी जगहों पर भी माचो बनियान पहने सैफ की तरह बड़े आराम से चले जाते थे, जहां अच्छे-अच्छों का जाना संभव नहीं होता था.
पर, अब स्थिति उलट गयी है. अब कुत्ते से कुत्तापालक की पहचान होती है. यह बड़ा आदमी है- इसके पास जर्मन शेफर्ड है! अरे छोड़, वह इससे भी बड़ा आदमी है, उसके पास इंग्लिश बुलडॉग या लैब्राडोर या गोल्डन रिट्रीवर या.. कोठियों के बाहर कुत्तापालक की तो सिर्फ नेमप्लेट होती है, पर कुत्ते की तसवीर के साथ चेतावनी भी टंगी होती है कि इस कुत्ते से सावधान!
साफ दिखता है कि कोठी किसकी है. कुत्तापालक या उसका कोई आदमी कुत्ते को दिन में दो-तीन बार लघु-दीर्घ शंकाएं निवृत्त कराने ले जाता है, कुत्ता कभी आदमी को नहीं ले जाता.
यहां तक कि बीते दिनों कर्नाटक के एक विधायक द्वारा अपने कुत्ते का सरकारी अस्पताल में डायलिसिस कराने का मामला सामने आया है. यह नवीनतम उदाहरण है मनुष्य की कुत्ता-भक्ति का, जिस पर ऊपर से देवता भी पुष्प-वर्षा करते होंगे.

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