प्रदेश में 1932 के राजस्व खातियान को प्राथमिकता आधार मानकर स्थानीयता को परिभाषित करने का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर निकला है. इससे राज्य में फिर से भूचाल आने की संभावना है. डोमिसाइल के जवाब ढूंढने में माननीय बाबूलाल मरांडी की सरकार चली गयी. पिछली मुंडा सरकार में वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन मंत्रिमंडलीय उपसमिति में थे और स्वयं सात सूत्रीय मांग भी रखी थी.
अभी स्थिति बदली है. जो वर्षो से यहां रह रहे हैं, जीवनर्पयत यहां की मिट्टी की खुशबू में पले-बढ़े. बिहार, बंगाल, ओड़िशा या अन्य राज्यों की जनता, जिनकी अपने राज्यों की नागरिकता की पहचान खत्म हो गयी है, जो झारखंड के विकास के लिए वोट करते हैं, वे कहां जायेंगे? 1932 में तो अंगरेजी हुकूमत थी, आजादी हमें 1947 में मिली और राज्य गठन 2000 में हुआ, फिर 1932 को ही आधार मानना राज्य हित में नहीं हो सकता है. वोट बैंक के लिए राजनीति बंद होनी चाहिए. स्थानीयता को लेकर भेदभाव न हो. मेरे विचार में झारखंड बनने की तिथि को स्थानीयता का आधार माना जाना चाहिए. संतोष कु तिवारी, देवघर