।। वीना श्रीवास्तव ।।
(स्वतंत्र लेखिका एवं कवयित्री)
आज एक बहुत बड़ा पर्व है. बहुत बड़ा इसलिए, क्योंकि इससे पूरा राष्ट्र जुड़ा है. यह हमारे देश की आजादी का पर्व है. देश में रहनेवाले चाहे जिस जाति–मजहब के हों, आजादी का जश्न सबका है. 15 अगस्त, 1947 या उसके बाद जन्मे लोग इस मायने में भाग्यशाली हैं कि उन्हें सांसें लेने के लिए आजाद फिजां मिली.
आज की पीढ़ी ने आजादी के संघर्ष का दौर भले न देखा हो, पर पढ़ा जरूर है. गुलामी से बाहर निकलने का वह जज्बा, अंगरेजों को भारत से खदेड़ने का जुनून, धर्म–संप्रदाय को भूल कर एकजुट ताकत से आजादी पाने का एकमात्र लक्ष्य, सभी कुछ इतिहास में तारीख–दर–तारीख दर्ज हैं. कितनी शिद्दत से लोगों ने आजादी के लिए संग्राम किया. जिस मां का बेटा इकलौता भी था, उसने भी नहीं सोचा कि उसे जंग में न भेजें. युवाओं की शहादत पर उसके पूरे परिवार ने गर्व से सिर उठाया.
लेकिन संघर्ष के लंबे दौर के बाद मिली आजादी की धरोहर को क्या हम 66 साल बाद भी संभाल पाये हैं? भारत जिस संस्कृति और सिद्धांतों के लिए जाना जाता था, उससे हम पीछा छुड़ा चुके हैं. आजादी से पहले नेताओं का मकसद होता था देशसेवा में जी–जान से जुटना. उनके अपने सिद्धांत, नैतिक मूल्य होते थे, पर आज? जंग–ए–आजादी में लाखों शहीदों ने लहू बहाया, पर आज हम उस पर भ्रष्टाचार का काला रंग चढ़ा रहे हैं!
अब तो स्वतंत्रता दिवस भी एक दिन का रस्मी त्योहार हो रहा है. दिवस विशेष को याद किया, तिरंगा फहराया, कुछ लोगों के भाषण और बस. इससे स्वतंत्रता दिवस हर साल मनाने का मकसद ही अधूरा रह जा रहा है. वक्त के पैमाने पर ज्यादा पीछे जाने की जरूरत भी नहीं. सिर्फ दो दशक पहले के माहौल को याद कीजिए.
स्वतंत्रता दिवस का जश्न किसी अन्य सामाजिक उत्सव से कम नहीं होता था. स्कूलों में 15 अगस्त की तैयारियां जुलाई से ही शुरू हो जाती थीं. 15 अगस्त ही नहीं, 26 जनवरी, 2 अक्तूबर को भी निबंध, वाद–विवाद, गीत–संगीत, नाटक जैसे कार्यक्रमों के जरिये बच्चों में देशभक्ति का जज्बा भरने की भरपूर कोशिशें की जाती थीं. शिक्षक उन्हें शहादत का मतलब समझाते थे, शहीदों की कुर्बानियां याद दिलाते थे. ज्यादातर स्कूलों से प्रभातफेरियां निकालती थीं, जिनमें देशभक्ति के नारों के जरिये बच्चे जोश प्रदर्शित करते थे. इन आयोजनों में भाग लेने के लिए बच्चे खुद राष्ट्रीय झंडा, बैनर और स्टिकर बनाते थे.
बहुत से स्कूलों में स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी डॉक्यूमेंट्री और देशभक्ति की फिल्में दिखाई जाती थीं. देशभक्ति के गीत तो चारों ओर दिनभर गूंजते ही रहते थे. नयी पीढ़ी में देशभक्ति का जज्बा भरने की वो कोशिशें अब कहां होती हैं? अब तो बहुत से स्कूलों में राष्ट्रीय पर्वो पर छुट्टी दे दी जाती है. कुछ स्कूल पेंटिंग आदि जैसे आयोजनों के जरिये 15 अगस्त को एक–दो दिन पहले ही मना लेते हैं. जहां 15 अगस्त के दिन ध्वजारोहण का कार्यक्रम होता भी है, वहां भी इसे निपटा कर घर जाने की जल्दी रहती है. बच्चों में अब 15 अगस्त को लेकर न वह जोश है, न उत्साह.
बहुत से अभिभावक भी इस दिन बच्चों के साथ कहीं बाहर छुट्टी मनाने की प्लानिंग कर लेते हैं. यहां तक कि घर पर रह कर भी लाल किले से ध्वजारोहण का सीधा प्रसारण दिखाने की जरूरत नहीं समझी जाती. कुछ लोग इस दिन फुटपाथ से एक तिरंगा खरीद कर बच्चों को पकड़ा देते हैं, फिर उन्हें यह पता नहीं होता कि बच्चों ने वे झंडे कहां फेंके, सड़क पर या कूड़े में. घरों और वाहनों पर लगे तिरंगे का भी यही हश्र होता है. यह राष्ट्र ध्वज का अपमान है.
बच्चे को हर कदम पर सही–गलत का फर्क बताना बड़ों का फर्ज है, जब हम ही तिरंगे का सम्मान नहीं करेंगे तो बच्चों को क्या बताएंगे? आजादी का यह कैसा जश्न है, जिसमें आजादी और राष्ट्रीय पर्व का सम्मान न हम खुद कर रहे हैं और न ही इसकी अहमियत बच्चों को समझा रहे हैं?
दरअसल आज के ज्यादातर अभिभावक पाश्चात्य संस्कृति से इतना प्रभावित हैं कि बच्चों को मन–मुताबिक जीने, खाने–पीने, घूमने–फिरने का अधिकार देने को ही अपना फर्ज और प्यार समझने लगे हैं. इस कारण बच्चे ‘राष्ट्र प्रेम’ जैसी किसी चीज से वाकिफ ही नहीं हो पाते. चारों ओर वैयक्तिक स्वार्थो की प्रबलता है. निज उत्थान की होड़ में राष्ट्र उत्थान गौण हो गया है.
अंगरेजों ने ‘फूट डालो–राज करो’ की जिस नीति का बीज बोया था, हमारे राजनेता सत्ता के लिए आज भी उसी नीति पर अमल कर रहे हैं. यही कारण है कि आजादी के 66 वर्षो बाद भी भारत आजादी के अपने सपनों को साकार नहीं कर पाया है. देश को भ्रष्टाचार, गरीबी, असमानता, अशिक्षा, अपराध, नशाखोरी आदि से आजादी का इंतजार अब भी है.