* वन अधिकार कानून
झारखंड की राजधानी रांची में वन अधिकार कानून पर आयोजित आठ राज्यों की दो दिवसीय बैठक में कई अहम मुद्दों पर चर्चा हुई. सही मायनों में इस आयोजन की सफलता इस कानून को सफल बनाने में ही है. यह सच है कि राज्य में वन अधिकार कानून की स्थिति अच्छी नहीं है. आदिवासी अपने अधिकार और कानून को लेकर आज भी आशंकित रहते हैं.
वन में रहनेवालों के लिए ही कई प्रकार के वनोत्पाद पर प्रतिबंध लगा दिया गया है. दरअसल, राज्य में वन अधिकार कानून का क्रियान्वयन अच्छी तरह नहीं हुआ है. केवल अधिकार के लिए कानून बना देने से कुछ नहीं होगा. अधिकार उन्हें कैसे मिले, यह देखना महत्वपूर्ण है. जंगलों का दोहन और वन्य पशुओं का शिकार अब भी बदस्तूर जारी है. इनके संरक्षण के लिए बनाये गये कानूनों का कोई बड़ा लाभ भी दिखायी नहीं पड़ता. तस्करी रोकने के लिए वन विभाग और पुलिस भी कोई खास सक्रिय नजर नहीं आती. इस कारण इस पर काबू पाना मुश्किल है.
असल अड़चन तो यह भी है कि वनवासियों को ही अपने लिए बनाये गये इस अहम कानून की जानकारी भी न के बराबर है. वन अधिकार अधिनियम के लोकप्रिय नाम वाला यह कानून, अनुसूचित जनजाति एवं पारंपरिक रूप से जंगलों में और उसके सहारे जीने वाली अन्य जातियों के सदस्यों को तीन मुख्य अधिकार देता है : पहला – 13 दिसम्बर 2006 से पहले जंगल में कृषि/जोती गई भूमि पर कानूनी अधिकार. दूसरा – लघु वन उत्पाद, जंगल में चरागाह और जलाशयों के उपयोग का अधिकार. तीसरा – सामुदायिक वन संसाधनों के संरक्षण और वन्य जीवन सुरक्षा की शक्ति.
आदिवासियों एवं अन्य परम्परागत वनवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय से उन्हें मुक्ति दिलाने और जंगल पर उनके अधिकारों को मान्यता देने के लिए संसद ने दिसम्बर, 2006 में अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून पास कर दिया था और एक लंबी अवधि के बाद अंतत: केंद्र सरकार ने इसे 1 जनवरी 2008 को अधिसूचित करके जम्मू–कश्मीर को छोड़ कर पूरे देश में लागू कर दिया.
निश्चय ही सरकार की ओर से आदिवासियों एवं अन्य वनवासियों के लिए यह एक बेहतर तोहफा था, पर समस्या इसके क्रियान्यवन में है. इस कानून से आदिवासियों को अधिक से अधिक लाभ मिल पाये, इसके लिए न केवल सरकार को अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाने की जरूरत है, बल्कि जन संगठनों को भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी.