।। शीतला सिंह ।।
(जनमोर्चा के संपादक)
योजना आयोग के नये मूल्यांकन के अनुसार देश में वर्ष 2011-12 में गरीबी की सीमा रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या घट कर अब 21.9 प्रतिशत हो गयी है, जो पहले 37.2 प्रतिशत थी. अब ग्रामीण क्षेत्रों में 27 रुपये प्रतिदिन एवं शहरों में 33 रुपये प्रतिदिन कमानेवालों को गरीबी रेखा से नीचे नहीं कहा जा सकता. गरीबी घटाने का श्रेय आयोग ने केंद्र सरकार को दिया है.
इससे इनकार नहीं कि देश में प्रगति हुई है. इसका मूल्यांकन रेल, विमान में बढ़े यात्रियों की संख्या, बस ट्रक, टैक्सी की बढ़ती संख्या और इनका उपयोग करने वालों के अनुपात से किया जा सकता है. जब देश स्वतंत्र हुआ तो लोगों के खाने भर को अनाज उपलब्ध नहीं था. आज हम खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हैं.
कुछ वस्तुओं का तो हम निर्यात भी कर रहे हैं. जहां पहले दोपहर का खाना बनाने के लिए चूल्हा आमतौर से देहात के तीन चौथाई घरों में नहीं जलता था, अब उसमें कमी आयी है. शैक्षिक संस्थानों की भी संख्या बढ़ी है. आज यह भी स्वीकार किया जाने लगा है कि निजी क्षेत्र में शिक्षा सेवा नहीं एक लाभकारी व्यवसाय का स्थान ले चुकी है. इसलिए जनता से लाभ उठाने के लिए इसका अधिक उपयोग होने लगा है.
गरीबी और अमीरी को निरपेक्ष संख्या के आधार पर नहीं पहचाना जा सकता है. आखिर गरीबी की परिभाषा का माध्यम क्या होगा? महंगाई विकासशील अर्थव्यवस्था का गुण माना जाता है क्या? पहले तो एक हाकिम तहसील का वेतन 450 रुपये मासिक हुआ करता था, वह भी आयकर योग्य माना जाता था, लेकिन आज तो आयकर सीमा 5 हजार से 2 लाख पहुंच गयी है.
असमानता का तर्क यह दिया जाता था कि जिला मजिस्ट्रेट को 40 रुपये रोज यानी 1200 रुपये महीना वेतन मिलता था, जबकि खेत मजदूर चार से भी कम आना प्रतिदिन पर काम करता था. लेकिन अब तो यह वेतन लाखों में पहुंच गया है. पहले लखपती होना समाज में आर्थिक रूप से सम्मान का कारण था, लेकिन अब तो करोड़ भी कोई खास गिनती में नहीं रह गयी है. इसलिए गरीबी और अमीरी का सापेक्षिक रूप से ही मूल्यांकन होगा कि कौन किससे कितना गरीब या अमीर है.
यदि इस आधार पर मूल्यांकन किया जायेगा, जिसमें गांवों के गरीब को 27 रुपये की प्राप्ति पर अब गरीबी रेखा से ऊपर मान लिया जायेगा, तो गणना इस आधार पर होगी कि वह इसे पाकर बाजार में कितना सक्षम हो गया है. जिससे वह पुरानी स्थिति में बदलाव कर सके. समाज जितना ही विकसित होगा महंगाई भी उतनी ही बढ़ती ही जायेगी. जनता का प्रतिनिधि विधायक–सांसद बन गया.
किसी जमाने में विधायक को 200 रुपये महीने का भत्ता और सांसद को 500 रुपये भत्ता मिलता था जिसे यदि प्रतिदिन के आधार पर निकाला जाये तो यह 6.77 रुपये और 16.67 रुपये प्रतिदिन मात्र बराबर ही होता है. लेकिन यह गणना इसलिए निर्थक हो गयी है, क्योंकि यह गरीबी रेखा से बहुत नीचे है.
इसलिए संविधान निर्माताओं ने राज्य के लिए जो निदेशात्मक सिद्घांत तय किये थे वह आमदनी के आंकड़ों के बजाय इस बात पर आधारित थे कि गरीबी और अमीरी का अंतर घटाना राज्य का दायित्व होगा. अब आइए इसे देखें कि क्या 10 पंचवर्षीय योजनाओं के बाद यह घटा है या बढ़ा है? स्वयं योजना आयोग भी इसे स्वीकार करता है कि यह अंतर बढ़ता ही जा रहा है.
कारण योजनाओं का लाभ समाज में खास वर्गो एवं समुदायों को ही मुख्य रूप से मिल रहा है. सरकारी सेवाओं का लाभ समाज के दो प्रतिशत लोगों से अधिक को नहीं मिलता. जब छठे वेतन आयोग द्वारा इन कर्मचारियों के वेतन एवं उपलब्धियों का निर्धारण हो रहा था, तब परिवार की परिभाषा 5 सदस्यों वाली मानी गयी. इनके लिए अब तक वेतन के निर्धारण की धनराशि वही होनी चाहिए, जिससे उसका निर्वाह हो सके. लेकिन व्यवस्था के लिए यह मानक स्वीकार नहीं किया गया कि देश में प्रति व्यक्ति औसत आय के अनुपात से यह कितनी अधिक होनी चाहिए.
आय के इस अंतर को हम किस रूप में स्वीकार करें? क्या यह इसी का परिणाम तो नहीं था कि मनरेगा के लिए एक वर्ष में 100 दिन काम मिलता है, वह भी सभी चाहने वालों को नहीं.
100 दिन का लक्ष्य भी पूरा नहीं हो पाया यह सरकार भी मानती है. मजदूरी 100 रुपये तक निर्धारित की गयी लेकिन इसका लाभ क्या अवयस्क, अपाहिज और वृद्ध मजदूरों को भी मिलेगा, जो काम करने में असमर्थ हैं. सामाजिक सुरक्षा की गारंटी आखिर कैसे तय की जायेगी. कुल मिला कर योजना आयोग की घोषणा आंकड़ों की बाजीगरी मात्र है.