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कर्नाटक का राजनीतिक जिन्न

।। अरविंद मोहन ।।(वरिष्ठ पत्रकार)– कल की राजनीति के लिए काफी सारे सूत्र कर्नाटक से निकलते नजर आते हैं. कांग्रेस जीती तो खेल अलग होगा, पर भाजपा अपना गढ़ बचाने में सफल हुई, तो खेल एकदम अलग होगा. – कर्नाटक विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार थम चुका है. मतदाता वोट देने के मूड में आ […]

।। अरविंद मोहन ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
– कल की राजनीति के लिए काफी सारे सूत्र कर्नाटक से निकलते नजर आते हैं. कांग्रेस जीती तो खेल अलग होगा, पर भाजपा अपना गढ़ बचाने में सफल हुई, तो खेल एकदम अलग होगा. –

कर्नाटक विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार थम चुका है. मतदाता वोट देने के मूड में आ चुके हैं. जिस तरह से सभी दलों के प्रचार में भीड़ जुटने और लोगों की भागीदारी की खबरें आ रही हैं, उनसे दो चीजें साफ हैं- कर्नाटक अपने ही राग में मगन है और इस बार शायद रिकॉर्ड मत पड़े. राष्ट्रीय मुद्दे और नेता तो गायब हैं, पर चुनाव का राष्ट्रीय महत्व कम होगा, यह कहना बड़ी गलती होगी.

चुनाव पांच मई को है और तब तक इसके महत्व को लेकर किसी के मन में गलतफहमी नहीं रहेगी. कर्नाटक के महत्व को अपने आप में कम नहीं माना जाना चाहिए. अगले साल के आम चुनाव से पहले जिन राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें यही एकमात्र राज्य है, जहां के लिए भविष्यवाणी करना आसान लग रहा है.

अगर सब कुछ सामान्य ढंग से चला और कांग्रेसियों ने ‘सेल्फ गोल’ नहीं किया, तो उनकी जीत पक्की लग रही है. यही चीज इस चुनाव को विशेष बनाती है. केंद्र की यूपीए सरकार रोज घिरती जा रही है. कांग्रेस को मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली और झारखंड में कहीं भी जीत का पूरा भरोसा नहीं है. ऐसे में संभव है कि पराजयों से हतोत्साहित कार्यकर्ताओं की फौज के साथ मैदान में जाने की जगह वह जीत के उत्साह के साथ कई राज्यों की विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव में एक साथ उतरे. इस बीच आर्थिक मोरचे पर जिस तरह से बुरी खबरें आयी हैं, उसमें कर्नाटक अगर नये चुनाव कराने का अधार बन जाये, तो हैरानी नहीं होगी.

भाजपा के लिए दक्षिण का यह पहला किला अब उसकी दुखती रग बन गया है. वह न सिर्फ पार्टी टूटने और अपने सबसे दमदार नेता येदियुरप्पा के अलग होने से परेशान है, बल्कि भ्रष्टाचार के मामलों की वजह से पूरे देश में कर्नाटक का उदाहरण देने से बच रही है. उसके लिए संकट यह भी है कि उसके कई नेता इसी कारण यहां चुनाव प्रचार में आने से भी बच रहे हैं.

नरेंद्र मोदी को अपनी छवि की इतनी चिंता रही कि वे कर्नाटक आकर इसे गंदा नहीं करना चाहते थे. वे सिर्फ एक दिन के लिए आये. यहां भाजपा के लिए लड़ाई सत्ता में आने या सत्ता बचाने से ज्यादा नंबर दो की पार्टी बनने की है. इसमें पहली चुनौती तो उसके कल तक के कर्णधार बीएस येदियुरप्पा की कर्नाटक जनता पक्ष ही दे रही है, जो भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस से भी हाथ मिलाने को तैयार थी.

यह अलग बात है कि कांग्रेस ने उनसे हाथ मिलाने से परहेज किया और लिंगायतों के इस दिग्गज नेता को अकेले मोर्चा संभालना पड़ा. फिर भाजपा को जनता दल-सेक्युलर के साथ भी नंबर दो की लड़ाई में लगना होगा, जो जनता दल-पार्टी नामक असंख्य संगठनों में सबसे दमदार और टिकाऊ होकर निकली है और जिसका वोक्कलिगाओं पर अच्छा प्रभाव है.

अब तक जो चार सर्वेक्षण आये हैं, उनमें से तीन कांग्रेस की जीत की भविष्यवाणी कर रहे हैं. पर सबको लगता है कि पूरे प्रदेश में समान आधार रखनेवाली कांग्रेस जितने प्रतिशत वोट पायेगी, उस अनुपात में उसे सीटें नहीं मिलेंगी. भाजपा, जेडीएस और कर्नाटक जनता पक्ष अलग-अलग क्षेत्रों में उसे मजबूत चुनौती देंगे और वोट की तुलना में ज्यादा सीटें जीतेंगे.

पिछले दो बार के मतदान में आगे रह कर भी कांग्रेस सीटों के मामले में हारी थी. भाजपा ने दक्षिण के इस किले पर जीत हासिल करने में कई चीजों से मदद ली थी. एक तो उसे येदियुरप्पा का ही सबसे बड़ा सहारा था. भाजपा को कुमारप्पा के ‘धोखा’ देने से भी राजनीतिक लाभ हुआ था. भाजपा को धारवाड़ और दावणगेरे जैसे कई शहरों में हुए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से भी लाभ हुआ था. पिछली बार उसके पक्ष में खनन माफिया रेड्डी बंधुओं का खजाना भी खुला हुआ था. इस बार खनन व्यवसाय के लोगों का जोर कम लगता है, तो रियल एस्टेट के लोग बड़ी संख्या में मैदान में हैं और उनके पैसों की धमक हर कहीं सुनायी दे रही है.

इस बार दिखनेवाले और शोरवाले खर्च के मामले में पिछली बार की तुलना में सादगी है. पर पिछली बार भाजपा की जीत में कांग्रेसी नेताओं की सिरफुटौव्वल भी एक बड़ा कारण था, जो काफी हद तक इस बार भी बरकरार है. कांग्रेस की जीत इस बात पर ही निर्भर करेगी, कि वह अपने नेताओं की लड़ाई को कितना रोक पाती है.

सोनिया ने कई माह पहले एक सभा में कांग्रेसियों को एकजुट रहने की सलाह देकर हंगामा मचाया था, पर लगता नहीं कि उसका कुछ असर हुआ है. कायदे से देखें तो कांग्रेस के पास हर बिरादरी और समुदाय का कद्दावर नेता है- वोक्कलिगा एसएम कृष्णा, दलित मल्लिकार्जुन खड़गे और परमेश्वरन, पिछड़ा सिद्घरमैय्या, वीरप्पा मोइली, मुसलमान जफर शरीफ, ईसाई आस्कर फर्नाडिस समेत कई दिग्गज हैं.

पिछली बार सिद्घरमैय्या पार्टी में नये थे, इसलिए उनकी गति कम थी. इस बार वे पूरे फॉर्म में हैं. पर नेताओं की भीड़ के साथ टकराव और अपने-अपने बाल-बच्चों को टिकट देने का खेल बड़े पैमाने पर हुआ है. राहुल गांधी के परिवारवाद संबंधी निर्देश का उल्लंघन होने के साथ दलबदलू नेताओं को टिकट देने का खेल भी बड़े पैमाने पर हुआ.

कर्नाटक इस मामले में बाकी जगहों से अलग नहीं कि यहां जाति ही सबसे निर्णायक फैक्टर है. लिंगायत तथा वोक्कलिगा भले ही अब तक प्रभुत्व रखते हों, लेकिन इधर पिछड़ों का उभार तेज हुआ है. संयोग से कांग्रेस के पास ही पिछड़ों के दोनों प्रमुख नेता वीरप्पा मोइली और सिद्घरमैय्या हैं. इनमें भी सिद्घरमैय्या जनता परिवारवाले हैं, पर उनका प्रभाव ज्यादा है.

दलितों के भी दो प्रमुख नेता कांग्रेस में हैं. दलित आबादी सामान्य है, पर उनकी वोटिंग निश्चित रूप से बड़ी है. अगर 17 फीसदी लिंगायत और 16 फीसदी वोक्कलिगा अब तक राज्य की राजनीति को चलाते रहे हैं, तो यह चुनाव 32 फीसदी पिछड़े और 23 फीसदी दलितों के प्रभुत्व का बन जाये तो कोई हैरानी नहीं होगी.

इस बार अवसर भी है और अच्छे नेता भी. मुसलमानों का वोट 12-13 फीसदी है और विभिन्न पॉकेटों में उनका भी प्रभाव अच्छा है. इस बार जाति और पिछली सरकार के साथ-साथ दक्षिणपंथी जमातों द्वारा सांस्कृतिक पहरेदारी करने और प्रवासी मजदूरों पर हमले का मसला भी कम या ज्यादा असर रखेगा.

साफ है कि कल की राजनीति के लिए काफी सारे सूत्र यहां से निकलते नजर आते हैं. अगर कांग्रेस जीती तो खेल अलग होगा, लेकिन छोटे खिलाड़ी ही नहीं, पिछले दुश्मन कुमारस्वामी की मदद से भी अगर भाजपा अपना गढ़ बचाने में सफल हुई, तो खेल एकदम अलग हो जायेगा.

अगर भाजपा दूसरे स्थान पर भी नहीं आयी तो दक्षिण भारत में फलने-फूलने की उसकी उम्मीदों पर भी पानी फिरेगा. देवगौड़ा और उनके बेटे कुमारस्वामी के साथ येदियुरप्पा के लिए यह मरने-मारने जैसा अवसर है. इस बार अगर वे फिसले तो सदा कि लिए हाशिये पर आ जायेंगे. लेकिन शायद यही इस चुनाव व्यवस्था की खूबसूरती है और इसकी जीवंतता का प्रमाण भी.

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