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इसे सुखद संयोग कहिए या सचेत प्रयास, तथ्य यह है कि चुनावी आहट की वेला में राजनीतिक दल अचानक लोकतंत्र की प्रहरी संस्थाओं के निशाने पर आ गये हैं. पहले (तीन जून) केंद्रीय सूचना आयोग (सीआइसी) ने कहा कि राजनीतिक दल भी अन्य सार्वजनिक संस्थाओं की तरह हैं, इसलिए सूचना के अधिकार के तहत उनसे […]

इसे सुखद संयोग कहिए या सचेत प्रयास, तथ्य यह है कि चुनावी आहट की वेला में राजनीतिक दल अचानक लोकतंत्र की प्रहरी संस्थाओं के निशाने पर गये हैं. पहले (तीन जून) केंद्रीय सूचना आयोग (सीआइसी) ने कहा कि राजनीतिक दल भी अन्य सार्वजनिक संस्थाओं की तरह हैं, इसलिए सूचना के अधिकार के तहत उनसे फंडिंग और खर्च के बारे में सूचना मांगी जाती है तो वे जानकारी देने से बच नहीं सकते.


पार्टियां
सीआइसी के इस फैसले की काट निकालने की जुगत में लगी ही थीं, कि पांच जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा कि लैपटॉप, टीवी सेट्स, पंखा आदि देने के जो वादे राजनीतिक दल करते हैं, वह भले ही जनप्रतिनिधित्व कानून के भीतर भ्रष्टाचार के दायरे में नहीं आता हो, पर उससे लोगों का राजनीतिक निर्णय प्रभावित होता है और चुनावी प्रक्रिया नैतिक धरातल पर मैली होती है, इसलिए चुनाव आयोग को चाहिए कि वह ऐसी घोषणाओं को रोकने के लिए दिशानिर्देश जारी करे.

इस फैसले को अभी हफ्ता भी नहीं बीता था कि राजनीति से दागीहटाने की मंशा से सुप्रीम कोर्ट का एक और आदेश गया है. इस बार सुप्रीम कोर्ट ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को ही समानता की व्यापक धारणा का विरोधी मानते हुए खारिज कर दिया है. इस ओर सुप्रीम कोर्ट का ध्यान एक स्वयंसेवी संगठन लोक प्रहरीऔर वकील लिली थॉमस ने याचिका के जरिये दिलाया था. याचिका का तर्क था कि जब कोई आम आदमी कोर्ट में अपराधी करार दिये जाने के बाद मतदाता रह पाता है, ही सांसदविधायक बनने के लिए चुनाव लड़ सकता है, तो कोई निर्वाचित प्रतिनिधि दोषी सिद्ध होने के बावजूद कैसे पद पर बने रह सकता है? इस तर्क को सही मानते हुए सुप्रीम कोर्ट का फैसला है कि किसी भी कोर्ट में जनप्रतिनिधि जिस दिन दोषी (कम से कम दो साल की सजा) करार दिया जाता है, उसी दिन से उसे सार्वजनिक पद या चुनाव लड़ने के अयोग्य माना जायेगा और यह अयोग्यता तब तक लागू रहेगी जब तक सुप्रीम कोर्ट उसे बरी नहीं कर देता.

चूंकि देश की विधायिकाएं केंद्र और राज्य स्तर पर दागी मंत्रियों और सांसदविधायकों से भरी पड़ी हैं और बाहुबली जेल से लड़ते जीतते हैं, इसलिए फैसले पर पार्टियों की भौंहें तन सकती हैं. आश्चर्य नहीं होगा, यदि नेतागण संसद की सर्वोच्चता का राग अलापते हुए कोई कानून बना कर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को नकारा कर दें. इसलिए मतदाताओं को सचेत रहना होगा. इस फैसले के बहाने ही सही, चुनावसुधार की प्रक्रिया पर बहस तेज हो तो यह देश के लोकतंत्र के लिए शुभ होगा.

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