।।खास पत्र।।
आज जो स्थिति हमारे झारखंड में उत्पन्न हुई है या यूं कहें कि उत्पन्न की गयी है, वह कोई समस्या नहीं, बल्कि विचार-दोष का प्रतिफल है. हर व्यक्ति शासन करना चाहता है, कोई शासित नहीं होना चाहता. इस शासन का अर्थ यह नहीं कि शासितों की रक्षा की जाये, उनकी शिक्षा-आजीविका की व्यवस्था की जाये अथवा विकास की प्रक्रिया को तेज किया जाये. बल्कि, आज इस शासन का वास्तविक अर्थ यह हो चुका है कि कैसे दूसरों की जेब के माल को अपनी जेब में भरा जाये, कैसे जनता को चूसा जाए, किस विकास कार्य में कितना कमीशन मांगा जाये या किस पदाधिकारी का तबादला कहां किया जाये और उसके एवज में उससे कितना वसूला जाये.
आज के नेता नेतृत्व का नहीं, दलाली का गुण रखते हैं. कैसे कहां जुगाड़ (सेटिंग) बिठायें कि फायदेमंद मंत्री पद पायें. उसूलों की तो चर्चा बेमानी है ही, ईमान का भी कहीं निशान नहीं मिलता. किस पार्टी में आस्था है, इससे कोई सरोकार नहीं. सरोकार है तो सिर्फ इस बात से कि टिकट कौन दे रहा और आगे बढ़ कर सोचें तो मंत्रीपद किस गंठबंधन में शामिल होने पर मिलेगा. यह पाने की सोच जब तक खोने (त्याग करने) में नहीं बदलेगी, देश और राज्य का कुछ होनेवाला नहीं है. पांच साल पर जनता-जनता का जाप करनेवाले लोभी नेता भरसक प्रयास करते हैं कि पांच साल बाद ही जनता के पास जाना पड़े, ताकि ज्यादा से ज्यादा शक्ति का दुरुपयोग कर सकें. उनके इस विचार से मात्र एक ही फायदा है चुनाव के अतिरिक्त बोझ से राहत, शेष तो वो रह कर आहत कर ही देते हैं. इस आहत मन से कुछ पंक्तियां प्रस्फुटित हो रही हैं : सरकार- सरकार सब कहैं, विकास कहै ना कोय/ जो कोई विकास करे, तो जनता काहे रोए.
मीतूसिन्हा,हजारीबाग